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पृथ्व्याऽप्रासुकयाऽद्विश्व बीजेन हरितेन यत्र । मिश्रं जीवस्त्रसैश्वान्नं महादोषः स मिश्रकः ॥ ३६॥
बनगार
सचित्त पृथिवी जल बीज (गेंहू जौ आदि ) हरितकाय । फल फूल पत्ते आदि ) और प्रस-जिसमें कि साक्षात् जीते हुए द्वींद्रियादिक जीव दृष्टिगोचर हों, ये पांच वस्तुएं जिसमें मिली हुई हैं उस अन्नको मिश्रदोषसे युक्त माना है, और इसको आचार्योंने महादोष कहा है।
___ इस प्रकार अशनदोषोंका निरूपण करके क्रमप्राप्त भुक्ति क्रियासम्बन्धी चार दोषोंका व्याख्यान करने के उद्देशसे अङ्गार धूम और संयोजना नामक तीन भेदोंका स्वरूप बताते हैं:
गृयाङ्गागेऽश्नतो धूमो निन्दयोष्णहिमादि च । मिथो विरुद्धं संयोज्य दोष: संयोजनाह्वयः॥ ३७॥
यह वस्तु बडी अच्छी है, रुचिकर है, मुझे इष्ट है, कुछ और मिले तो बड़ा अच्छा हो इस प्रकार आहारमें अत्यंत लम्पटता रखकर भोजन करनेवाले साधुके अङ्गार नामका भुक्तिदोष माना है । यह वस्तु बडी खराब बनी है, मुझे बिलकुल अच्छी नहीं मालुम होती, इस प्रकार आहारमें जुगुप्सा रखकर भोजन करनेवाले साधुके धूम नामका भुक्तिदोष माना है । गरम और ठंडा अथवा स्निग्ध और रूक्ष इस तरह परस्पर विरुद्ध पदा. थोंको आपसमें गरमको ठंडे के साथ अथवा ठंडेको गरमके साथ तथा स्निग्धको रूक्षके साथ अथवा रूक्षको त्रिग्धके साथ मिलाकर ग्रहण करनेमें, यद्वा आयुर्वेद में बताये हुए विरुद्ध पदार्थीको दूध आदिके साथ ग्रहण करनेपर साधुके संयोजना नामका मुक्तिदोष माना है। जैसा कि कहा भी है कि:
उक्तः संयोजनादोषः स्वयं भक्तादियोजनात् । आहारोतिप्रमाणोस्ति प्रमाणगतदूषणम् ॥ .
अध्याय
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