________________
अनगार
५४९
CARRANGESAR
रुधिर, तथा साधारण रुधिर-रक्त-खून, मांस, हड्डी, चर्म, नख. केश, मरा हुवा विकलत्रय-द्वीन्द्रिय त्रींद्रिय चतुरिन्द्रय, कन्द सूरण आदि, जो उत्पन्न हो सकता हो ऐसा गेंहू आदि बीज, मूली अदरख आदि मूल, बेर आदि फल तथा कर्ण-गेहूं जौ आदिका बाह्य खण्ड, और कुण्ड-शाली आदिके अभ्यंतर सूक्ष्म अवयव अथवा बाहरसे पक्क भीतरसे अपक्कको कुण्ड कहते हैं। आठ प्रकारको पिण्डशुद्धि में पाठ न रहनेके कारण इन मलोंका पृथक् निरूपण किया है।
- इनमेंसे उत्तम मध्यम जघन्य भेदोंको गिनाते हैं:-- पूयादिदोषे त्यक्त्वापि तदन्नं विधिवच्चरेत ।
प्रायश्चित्तं नखे किश्चित केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ॥ ४॥ उक्त चौदह मलों से आदिकं पीव रक्त मांस हड्डी और चर्म इन पांच दोषोंको महादोष माना है ।अत एव इनसे संसक्त आहारको केवल छोड ही न देना चाहिये किन्तु उसको छोडकर आगमोक्त विधिके अनुसार प्रायाश्चत्त भी ग्रहण करना चाहिये । नखका दोष मध्यम दर्जेका है, अत एव नखयुक्त आहारको छोड तो देना ही चाहिये किन्तु कुछ प्रायाश्चत्त भी ग्रहण करना चाहिये । केशादिकका दोष जघन्य दर्जेका है अत एव साधुओंको उनसे युक्त आहार केवल छोड देना चाहिये।
केशादिकसे अभिप्राय केश और मृत विकलत्रयका है । अत एव शेष कन्दादिकके विषयमें विधिका भेद है क्योंकि इस विषयमें ऐसा विधान है कि कन्दादिकको आहारते अलहदा करदेना चाहिये । यदि वे अलहदा न हो सकते हो तो आहारको भी छोड देना चाहिये । इसी विधिविशेषको बताते हैं:
अध्याय
१-कहीं २ बीजशब्दसे अंकुरित अवस्था ली है। २-कहीं कहीं वण शब्दका अर्थ चावल आदि किया है।