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अनगार
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अध्याय
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ब्राह्मणादिकों में से जो गृहस्थ नित्य नैमित्त अनुष्ठान करनेवाले हैं वे दाता हो सकते हैं; किन्तु शिल्पी आदि नहीं हो सकते जैसा कि कहा भी है कि-
शिल्पिका रुकवाक्पण्यशंफली पतितादिषु । देहस्थितिं न कुर्वीत लिङ्गि लिङ्गोपजीविषु ॥ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेपि जन्तवः ॥
जिस नवधा भक्तिसे दाता दान देता है उसको नवपुण्यशब्दसे कहा है। जिसके कि नाम इस प्रकार हैं
पडिगहमुचठ्ठाणं पादोदयमचणं च पणमं च । मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धीय नवविहं पुण्णं ॥
प्रतिग्रह उच्चस्थान पादप्रक्षालन पूजन प्रणाम और मन वचन कायकी शुद्धि तथा मोजनसम्बन्धी शुद्धि इस प्रकार नौ कर्तव्यों को नवपुण्यशब्द से कहा है ।
द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धिमें क्श अन्तर है सो बताते हैं:
द्रव्यतः शुद्धमप्यन्नं भावाशुद्धया प्रदुष्यते ।
भावो शुद्धो बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चितः ॥ ६७ ॥
यदि अन्न -- भोज्य सामग्री द्रव्यतः शुद्ध-प्रासुक भी हो किन्तु भावतः ' मेरे इसने यह बहुत अच्छा किया' इत्यादि परिणामोंकी दृष्टिसे अशुद्ध हैं तो उसको अशुद्ध-सर्वथा दूषित ही समझना चाहिये। क्योंकि बन्धमोक्ष के कारण परिणाम ही माने हैं । आगममें अशुद्ध परिणामोंको कर्मबन्धका और विशुद्ध परिणामोंको मोक्षका कारण बताया है । अत एव जो अन द्रव्यसे शुद्ध रहते हुए भी भावसे भी शुद्ध है उसीको ग्रहण करना चाहिये। जैसा कि कह मी है कि
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धर्म०
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