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अनगार
इस प्रकार इस अध्यायमें पिण्डराद्विका वर्णन करके अन्तमें शुद्ध आहारके निमित्तसे प्राप्त हई सामर्थ्यके द्वारा त्रिकालसम्बन्धी-भत भविष्य और वर्तमान सिद्धिविषयक उत्साहको उद्योतित करनेवाले मुक्षुओंसे ग्रन्थकर्चा-आचाधर अपनी सिद्धिकी प्रार्थना करते हैं
विदधति नवकोटीशुद्धभक्ताधुपाजे,कृतनिजवपुषो ये सिद्धये सजमोजः । विदधतु मम भूता भाविनस्ते भवन्तो,प्यसमशमसमुद्धाः साधवः सिद्धिमद्धा ॥१९॥
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कृत कारित अनुमोदनाको मन वचन और कायसे गुणा करनेपर नवमङ्ग होते है। इन्हीको नवकोटी कहते हैं। इन नवकोटियोंसे शुद्ध भोजन पानादिके द्वारा अपने शरीरको बलाधान पहुंचानेवाले और अद्वितीय उपशमरूप समृद्धिको धारण करनेवाले जो साधु अपने उत्साहको सिद्धि के प्राप्त करनेमें साक्षात समर्थ बना रहे हैं अथवा बना चुके हैं या जो आगे चलकर बनायेंगे वे परम साधु मुझको भी शीघ्र ही निज आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करावें ।
__यहाँपर " कृतनिजवपुषः" की जह विकल्पमें " कृततनुसुहृदः" ऐसा भी पाठ रक्खा है । क्योंकि सिद्धि प्राप्त करनेमें अनुकूल कारण बनकर आत्माकेलिये शरीर मित्रकी तरह उपकारक है।
ऊपर जो नवकोटीके भेद बताये हैं उसके सिवाय आर्ष आगममें प्रकारान्तरसे भी उनको गिनाया है। यथा:
दातुर्विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा । शुद्धीर्दयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः ॥ पात्रस्य शुद्धिातारं देयं चैव पुनात्यतः । नवकोरिविशुद्धं तदानं भूरिफलोदयम् ॥
अध्याय