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अनगार
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अध्याय
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प्रगता असवो यस्मादन्नं तद् द्रव्यतो भवेत् ॥ प्रासुकं किं तु तत्स्वस्मै न शुद्धं विहितं मतम् ॥
दूसरेके लिये बनाये हुए अनका ग्रहण करनेवाला भोक्ता यति दूषित नहीं होता इस बातको दृष्टान्तद्वारा दृढ करते हैं
अथवा
योक्ताऽधः कर्मिको दुष्यन्नात्र भोका विपर्यात् ।
मत्स्या हि मत्स्यमदने जले माद्यन्ति न प्लवाः ॥ ६८ ॥
अादिककी योजना करने बनाने तथा रखने उठाने संचय आदि करनेमें प्रवृत्ति दाताकी हुआ करती है अत एव अधः कर्मसम्बन्धी दूषण दाताको ही लगता है, न कि भोक्ताको; क्योंकि उसका अधः कर्म से बिलकुल भी सम्बन्ध नहीं रहता । ठीक ही है-यदि जल मत्स्यों के लिये मदका कारण बनजाय तो उससे मत्स्य ही मदको प्राप्त हो सकते हैं, न कि मण्डूक । जैसा कि कहा भी है कि
मत्स्वार्थ प्रकृते योगे यथा माद्यन्ति मत्स्यकाः । न मण्डूकास्तथा शुद्धः परार्थ प्रकृते वृतिः ॥ अधः कर्मप्रवृत्तः सन् प्राद्रव्येपि बन्धकः । अधः कर्मण्यसौ शुध्दो यतिः शुद्धं गवेषयेत् ॥
आधाकम्मपरिणदो पागद्वेषि बंधगो भणिदो । सुद्धं समाणो आधाकमेति सो सुद्धो ॥
प्राक द्रव्यको ग्रहण करते हुए भी यदि साधु अधः कर्मसे प्रवृत्त होता है तो वह कमका बन्ध ही करता है । अत एव शुद्ध आहारकी गवेषणा करनेवाले साधुको अभ्रः कर्मके विषय में भी विशुद्ध ही रहना चाहिये ।
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