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अनगार
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अध्याय
माना गया है । अत एव इस इच्छानिरोधरूपी अमृतको जो तपरूपी समुद्रका शरीर कहा है सो ठीक ही है। क्यों कि इसमें अवगाहन करनेसे समस्त संताप दूर हो सकते हैं।
इस तपःसमुद्रका आश्रय सम्यग्दर्शनरूपी वज्रमय नौका है।
जिस प्रकार समुद्रका आधार स्थल वज्रमय नावके आकारमें है उसी प्रकार तपस्याका भी आश्रय दृढ सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार समुद्र में उद्धृत वैभत्रको धारण करनेवाले अन्तद्वीप रहा करते हैं उसी प्रकार तपश्चरण में विस्मयate विभूतिको सम्पन्न करनेवाले उत्तम क्षमा आदि दश धर्म रहा करते हैं । धर्मोंको अन्तद्वीपों के समान बताना ठीक ही है; क्योंकि जिस प्रकार अन्तद्वीपोंकी देवगण नित्य सेवा किया करते हैं उसी प्रकार मुमुक्षुजन इन धर्मोकी सेवा किया करते हैं। जिस प्रकार समुद्र में प्रवेश करनेकेलिये किनारेपर घाट बने रहते हैं उसी प्रकार तपःसमुद्रमे प्रवेश करनेकेलिये अनित्य अशरण संसार एकत्व अन्यत्व अशुचित्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओंको समझना चाहिये । जिस प्रकार समुद्रमें जगतको आल्हादित करदेनेवाले हीरा मोती आदि रत्न रहा करते हैं उसी प्रकार तपश्चरणमें समीचीन व्रत गुप्ति और समिति हुआ करती हैं || समुद्र यदि जगतको आल्हादित करनेवाले चन्द्रमाके द्वारा शाभायमान होता है तो तपश्चरण वैसे ही सम्यग्ज्ञानके द्वारा प्रदीप्त होता है। जिस प्रकार समुद्र में कोई कोई लहरी निर्मालित और कोई कोई उन्मीलित रहा करती हैं उसी प्रकार तपश्चरणमें भावनाबलके द्वारा कोई कोई परषि तिरोहित - अपना कार्य करने में असमर्थ और कोई कोई उद्भूत - कार्य करनेमें समर्थ रहा करती है । जिस प्रकार समुद्र अपने ऐरावत कौस्तुभ और पारिजात इन तीन रत्नोंके माहात्म्यका अतिशय प्रकट होने से अपने उत्कर्षकी सम्भावना किया करता है उसी प्रकार तपश्चरण भी अपनेको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रयस्वरूप परिणत आत्मा के घति अघति कर्मों का क्षपण करनेमें समर्थ शक्त्यतिशय के द्वारा उत्कृष्ट प्रकट करता है ।
भावार्थ- समुद्रसमान तपश्चरणमें अवगाहन करनेसे ही सांसारिक तापत्रयी शान्ति हो सकती है और नत्र तथा आत्मोपलब्धिकी प्राप्ति हो सकती है। अत एव साधुओं को मोक्षमार्ग में महोद्योग करनेके लियें इस तपःसमुद्र में अवगाहन करना ही चाहिये ।
धर्म ०
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