________________
अतिमात्र नामक भुक्तिदोषके चौथे मेदका स्वरूप बताते हैं:सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमंशमुदरस्य । भृत्त्वाऽभृतस्तुरीयो मात्रा तदतिक्रमः प्रमाणमल: ।। ३८ ॥
अनगार
५४८
- साधुओंको उदरके दो भाग-भूख के आधे प्रमाणको व्यंजन दाल शाक आदि और अशन--भात रोटी लड्डू आदिक द्वारा भरना-पूर्ण करना चाहिये । ता एक अंश-एक चतुर्थाशको पानी आदि द्रव पदार्थोंसे पूर्ण करना चाहिये । किन्तु उदरका एक चतुर्थाश खाली ही रखना चाहिय, परन्तु जो साधु इस प्रमाणका अतिक्रमण करता है उसके अतिमात्र नामका भुक्तिदाष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
अन्नेन कुक्षेविंशौ पानेनैकं प्रपूरयेत् । ।
आश्रमं पवनादीनां चतुर्थमवशेषयेत् ।। पेटका चतुर्थभाग वायु आदिका स्थान माना है । अत एव उसको रिक्त रखना ही उचित है । उसको भी भरलेनेपर आलस्य निद्रा आदि विकार होने लगते हैं, ज्वरादि व्याधियां भी उद्भूत हो सकती हैं, जिससे कि स्वाध्याय आदि आवश्यक कर्मों की क्षति ही होती है । इसी लिये अतिप्रमाण भोजनको दोष माना है ।
इस प्रकार पिण्डदोषके छयालीस भेदोंका निरूपण करके अब क्रमप्राप्त चौदह मलोंका निरूपण करते हैं:
पूयास्रपलास्थ्यजिनं नखः कचमृतविकलत्रिके कन्दः । बीजं मूलफले कणकुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगताः ॥ ३९ ॥
अध्याय
जिनसे कि संसक्त- स्पृष्ट होनेपर अनादिक आहार्य सामग्री साधुओंको ग्रहण न करनी चाहिये उनको | मल कहते हैं। उनके चौदह भेद हैं जिनके कि नाम इस प्रकार हैं--पीव-फोडे आदिमें होजानेवाला कच्चा