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बमगार
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पांच संयमोंमेंसे आदिके दो सामायिक और छेदोपस्थापनका स्वरूप पहले लिख चुके हैं। शेष तीनका स्वरूप आवश्यक समझकर लिखते हैं:
त्रिंशद्वर्षवया वर्षपृथक्त्वे वा स्थितो जिनम् । यो गुप्तिसमित्यासक्तः पापं परिहरेत् सदा ॥ स पञ्चैकयमोधीतप्रत्याख्यानो बिहारवान् । स्वाध्यायद्वयसंयुक्तो गव्यूत्यर्धाध्वगो मुनिः ।। मध्याहृद्विगव्यूतिगच्छन्मन्दं दिनं प्रति । कृषीकृतकषायारिः स्यात् परीहारसंयमी ॥ सूक्ष्मलोभं विदन् जीवः झपकः शमकोपि वा। किंचिदूनो यथाख्यातास सूक्ष्मसांपरायकः ।। सर्वकर्मप्रभो मोहे शान्ते क्षीणेपि वा भवेत् ।
छद्मस्थो वीतरागो वा यथाख्यातयमी पुमान् ॥ तीस वर्षकी आयुतक सुखपूर्वक घरमें ही रहनेके बाद पृथक्त्व वर्षतक तीर्थकर भगवान्के पादमूलमें रहकर गुप्ति और समितियोंके पालन करनेमें आसक्त हुआ जो साधु पापकर्मोसे सदा परिहत रहता और पांच प्रकार के संयमोंमें किसी भी एक संयमका पालन करता हुआ प्रत्याख्यान पूर्वका अध्ययन करके विचार करता है, और एक आध कोस मार्गमें चलकर दो प्रकारका स्वाध्याय करता तथा प्रतिदिन सन्ध्याकालोंको मन्दगतिसे दो कोस गमन करता है ऐसे कषायरूप शत्रुओंको कृष करदेनेवाले मुनिके परिहारविशुद्धि नामका संयम होता है । जो क्षपक अथवा उपशमक श्रेणीका आरोहण करचुका है और जिसका कषाय अत्यंत सूक्ष्म रहगया है ऐसे साधुके
बध्याय
१-तीनसे नौ तककी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं।