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जनगार
कुर्वन् येन विना तपोपि रजसा भूयो हृताद् भूयसा, . नानोत्तीर्ण इव द्विपः स्वमपधीरुद्धूलयत्युद्धरः ।
यस्तं संयममिष्टदेवतमिवोपास्ते निरीहः सदा,
किं-कुर्वाणमरुद्गणः स जगतामेकं भवेन्मङ्गलम् ॥ ११ ॥ ___ सरोवरमें स्नानावगाहन करके बाहर निकला हुआ मदोन्मत्त हस्ती जिस प्रकार कुछ धुलजानेवाली धूलिकी अपेक्षा कहीं अधिक धूलिसे अपनेको धूसरित बनालेता है, उसी प्रकार मदके उद्रेकको प्राप्त हुआ जडबुद्धि जीव, जिसके विना, तप करके भी निजीर्ण कर्मोंकी अपेक्षा बहुत अधिक पाप कर्मोंसे अपनी आत्माको उल्टा मलिन बनालेता है, उस संयमकी जो साधु ख्यातिलाभादिकी अपेक्षासे रहित होकर नित्य ही इष्ट देवताकी तरह उपासना करता है वह संसारके सभी बहिरात्मा प्राणियोंकेलिये उत्कृष्ट मङ्गलरूप हो जाता है। क्योंकि उसके निमित्तसे संसारी जीवोंके पापका क्षय और पुण्यका संचय होता है। इसी प्रकार संयमाराधकके सम्मुख देव और उनके इन्द्र भी किंकरकी तरह-" हम क्या करें"-इस तरहसे आदेशकी प्रार्थनाकेलिये निरंतर उन्मुख हुए खडे रहते
तपका चारित्रमें अन्तर्भाव किस प्रकार होजाता है उसकी उपपत्ति बताते हैं:
कृतसुखपरिहारो वाहते यच्चरित्रे, न सुखनिरतुचित्तस्तेन बाह्यं तपः स्यात् । परिकर इह वृत्तोपक्रमेऽन्यत्तु पापं, क्षिपत इति तदेवेत्यस्ति वृत्ते तपोऽन्तः ॥ १८२ ॥