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अनगार
वचन बोलकर जहां आहारादि ग्रहण किया जाय वहां वनीपक वचन नामका उत्पादन दोष समझना चाहिये। जैसे कि दाताके यह पूछनेपर कि कुत्ता काक कोढी मांसासक्त द्विज दीक्षोपजीवी पार्श्वस्थ तापस श्रमण छात्र इत्यादिकोंको दान देनेमें पुण्य होता है या नहीं ? उत्तर में आहारके आभिप्रायसे ऐसे अनुकूल वचन बोलना कि " इस में क्या सन्देह ई, होता ही है, ऐसे. ही वचनोंको वनीपकवचन नामका दोष कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि
साण-किविण-तिहिमाहण-पासत्थिय-सवण-काग-दाणादि ।
पुण्णं णवेति पुढे पुण्णं ति य वणिवयं वयणं ।। ऐसे वचनोंके बोलनेसे दीनता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है। ___अपने हस्तरेखादिके अथवा शिल्पशास्त्रादिके ज्ञानको यद्वा कुल जाति ऐश्वर्य तपोऽनुष्ठानादिको प्रकट करके भोजन ग्रहण करनेमें आजीव नामका दोष होता है । यथाः
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आजीवस्तप ऐश्वर्य शिल्पं जातिस्तथा कुलम् ।
तैस्तूत्पादनमाजीव एष दोषः प्रकथ्यते ।। ऐसा करनेमें वीर्य--सामर्थ्यका अनिगृहन और दीनता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है।
क्रोध मान माया लोभ इन चार दोषोंका, पूर्व कालमें हस्तकल्यादिक नगरोंमें होजानेवाले इनके आख्यानोंको बताते हुए, स्वरूपनिर्देश करते हैं।
अध्याय
क्रोधादिबलादादतश्चत्वारस्तदभिधा मुनेर्दोषाः।
पुरहस्तिकल्यवेन्नातटकासीरासीयनवत् स्युः ॥२३॥ ऋद्ध होकर भोजनादिके ग्रहण करनेमें क्रोध दोष, अभिमानके वशीभूत होकर ग्रहण करनेमें मान दोष,