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ज्वरादिक व्याधि अथवा ग्रहादिकोंकी बाधा दूर करनेको चिकित्सा कहते हैं इसके आठ अङ्ग हैं-रसायन विष क्षार बाल शरीर भूत शल्य और शलाका । यथाः
धर्म
अनगार
रसायनविषक्षागः कौमाराङ्गचिकित्सिते । चिकित्सा दोष एषोऽस्ति भूतं शल्यं शिराष्टधा ।।
अत एव इस चिकित्साविधिके द्वारा उक्त व्याधिवाधाका स्वयं प्रतीकार करके अथवा उसके निराकरण का उपदेश देकर जो साधु भोजन करता है उसके चिकित्सा नामका उत्पादन दोष लगता है । क्यों कि ऐसा करनेसे सावद्यादिक अनेक दोषोंकी उद्भूति होती है ।
आकाशगामिनी आदि अनेक प्रकारकी विद्याएं प्रसिद्ध हैं। उनका माहात्म्य दिखाकर अथवा उनका दान करके-सिद्ध कराकर, यद्वा मैं तुझको अमुक विद्या दे दंगा ऐसा आश्वासन देकर भोजन करनेवाले साधुके विद्या नामका दोष लगता है । जैसा कि कहा भी है कि:
विज्जो साधिदमिद्धा तिस्से आसापदाण करणेहिं ।।
तिस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दुउप्पादो॥ इसी प्रकार मन्त्रका माहात्म्य दिखाकर यद्वा उसका दान करके-सिद्ध कराके अथवा सिद्ध करादेनेका आश्वासन देकर भोजन करनेवाले साधुके मन्त्र नामका दोष लगता है। ऐसा करनेमें लोकप्रतारण, रसनेन्द्रियकी गृद्धि आदि अनेक दोष प्रकट होते हैं अत एव इनको दोष माना है।
विद्या और मन्त्र इनके दोषोंका स्वरूप प्रकारान्तरसे बताते हैं:--
विद्या साधितसिद्धा स्यान्मत्रः पठितसिद्धकः । त भ्यां चाहूय तौ दोषौ स्तोश्नतो मुक्तिदेवताः ॥ २६ ॥
अध्याय