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अनगार
समाचारको धारण करके भोजनादि करनेमें माया दोष, और लुब्ध परिणामोंसे आहार आषधादिके ग्रहण करने में लोभ दोष होता है। जैसा कि पूर्व कालमें हस्तिकल्यादिक नगरोंमें हो भी चुका है। हस्तिकल्य नामके नगरमें क्रोधके बलसे भोजन करनेवाले मुनिको क्रोध नामका दोष, और वेत्रातट नामक नगरमें मानके बलसे भोजन करनेवालेके मान दोष, काशी नगरीमें मायाचारके बलसे भोजन करनेवालेके मायादोष, तथा लोभके बलसे रासीयन नामके नगरम भोजन करनेवालेके लोभ नामका दोष घटित हो चुका है। उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।
पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति दोषोंको बताते हैं:-- स्तुत्वा दानपतिं दानं स्मरयित्वा च गृह्णतः ।
गृहीत्वा स्तुवतश्च स्तः प्राक्पश्चात्संस्तवौ क्रमात् ॥ २४ ॥ तुम बडे दानवीर हो, तुह्मारी कीर्ति सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त होरही है, इत्यादि अनेक प्रकारसे दाताकी प्रशंसा करके अथवा " पहले तो तुम बड़े दानशूर थे. मुक्तहस्त होकर लोगोंको दान किया करते थे, पर अब तो कुछ न मालुम, क्यों भूलसे गये हो", इत्यादि अनेक प्रकारसे उसको पहले दानका स्मरण दिलाकर भोजन करनेमें पूर्वस्तुति नामका दोष होता है । तथा भोजन करनेके अनन्तर उसी प्रकार स्तुति करना दानका स्मरण दिलाना उसको पश्चात् स्तुति नामका दोष कहते हैं । ऐसा करने में जिनलिङ्गके कर्तव्योंसे विरुद्ध कृपणता प्रकट होती है अत एव इसको दोष माना है।
अध्याय
चिकित्सा विद्या और मन्त्र इन तीन दोषोंको बताते है:चिकित्सा रुक्प्रतीकाराद्विद्यामाहात्म्यदानतः। . विद्या मन्त्रश्च तदानमाहात्म्याभ्यां मलाश्नतः ॥२५॥