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अनगार
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अध्याय
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AATRISTINE THEATRE
यथाख्यातसे कुछ ही कम जो संयम होता है उसको सूक्ष्मसांपराय कहते हैं । सम्पूर्ण कर्मों में प्रधान मोहकर्मके सर्वथा उपशांत होजानेपर अथवा क्षीण होजानेपर जो छद्मस्थ अथवा वीतराग साधुओंके संयम होता है उसको यथाख्यात संयम कहते हैं ।
संयम के विना केवल कायक्लेशरूप तपके अनुष्ठानसे कर्मों की निर्जरा होती तो है किन्तु वह बन्धसह भाविनी होती है । अत एव सिद्धिके अभिलाषियोंको इस संयमका आराधन अवश्य ही करना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं:--
तपस्यन् यं विनात्मानमुद्वेष्टयति वेष्टयन् ।
मन्थं नेत्रमिवाराध्यो धीरैः सिद्ध्यै स संयमः ॥१८०॥
जिस प्रकार महा विलोनेका दण्ड अपने खींचनेवाली रस्सीसे एक साथ ही बन्धता भी है और खुलता भी है। उसी प्रकार संयम के बिना हिंसादिक विषयोंमे की गई प्रवृत्तिके साथ तप - आतापनादिक कायक्लेशको करता हुआ यह जीव भी बन्धसहभाविनी निर्जरा किया करता है । जिस समय कुछ कर्मोंसे मुक्त हुआ करता है उसी समय दूसरे कर्मोंसे वेष्टित भी हुआ करता है । फलतः संयम के विना तप भी निरर्थक है - आत्मसिद्धिका साधक नहीं हो सकता । अत एव अक्षोभ्य प्रकृतिके धारण करनेवाले साधुओंको आत्म सिद्धिकेलिये निश्चय नयसे रत्नत्रय में एकसाथ प्रवृत्त एकाग्रतारूप और व्यवहार नयसे प्राणिरक्षा और इन्द्रिय निरोधरूप संयमका आराधन करना ही चाहिये ।
संयमरहित तप करनेवालेके जितने कर्मोंकी निर्जरा होती है उससे अधिक कर्मोंका संचय हो जाता है । इस बातको दिखाते हुए और इसीलिये सुतरां साधुओंको संयमाराधन के प्रति उद्यत करने के लिये उनको पूजातिशयसे पूर्ण तीन लोककी अनुग्रहतारूप उसका फल बताते हैं:--
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