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अनगार
अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूतिकम्मं तु ।
चुल्लीउखलीदव्वीमायणगंधित्ति पंचविहं । इनके उदाहरणोंकी कल्पना स्वयं करलेनी चाहिये।
मिश्र दोषका स्वरूप बताते हैं :पाषण्डिभिहस्थैश्च सह दातुं प्रकल्पितम् । यतिभ्यः प्रामुकं सिद्धमप्यन्नं मिश्रमिष्यते ॥१०॥
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मासुक-अचित्त भी बनाये हुए उस अनको आचार्योंने मिश्र दोषसे दूषित ही कहा है, यदि वह दाताने पापाण्डियों और गृहस्थोंके साथ साथ यतियोंको देनेके लिये तयार किया हो ।
कालकी हानि और वृद्धिकी अपेक्षासे प्राभृत दोषके दो भेद होते हैं। एक स्थूल दसरा सूक्ष्म । इन दोनोंका स्वरूप बताते हैं :
यदिनादौ दिनांशे वा यत्र देयं स्थितं हि तत् ।
प्राग्दीयमानं पश्चाद्वा ततः प्राभृतकं मतम् ॥ ११ ॥ आगममें जो वस्तु जिस दिन जिस पक्ष या जिस वर्षमें देने योग्य बताई है अथवा दिनके जिस पूर्वाह्न या अपराह्नमें देने योग्य बताई है उससे पहले या पीछे यदि उस वस्तुको दिया जाय तो उसको आगममें प्राभृत दोषसे दूषित माना है। पहले पीछेको ही कालकी हानि और वृद्धि कहते हैं। इसकी अपेक्षासे ही प्राभृत दोषके दो भेद होजा. ते हैं-एक स्थूल दूपरा सूक्ष्म । स्थूल भी कालकी हानि वृद्धिकी अपेक्षासे होता है और सूक्ष्म भी । अन्तर इतना ही है कि दिन पक्ष मास आदिकमें हानि वृद्धिका होना स्थूल ग्राभृत है और दिन के अंशोंमें पहले पीछे होना सूक्ष्म प्राभृत है । यथा :
अध्याय
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