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अनगार
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ख्यानकी अपनी बुद्धिसे यहांपर ही घटना कर सकते हैं अत एव प्रकृतमें किसी प्रकारके सूत्रविरोध आदिकी शंका न करनी चाहिये।
अविहत दोषका व्याख्यान करते हैं:-- त्रीन सप्त वा गृहान् पङक्त्या स्थितान्मुक्त्वान्यतोऽखिलात ।
देशादयोग्यमायातमन्नाद्यभिहृतं यतेः ॥ १० ॥ एक सरल पक्तिमें स्थित तीन अथवा सात मकानोको छोडकर बाकी सब जगहोंसे मुनियोंके भोजन केलिये आई हुई अयोग्य अन्नादिक भोज्य सामग्रीको अमिहृत कहते हैं। ऐसी सामग्रीके ग्रहण करनेमें ईर्यासमिति आदिका पालन नहीं हो सकता किंतु उसमें प्रचुरतया दोष आता है अत एव साधुओंकेलिये ऐसे भोजनके ग्रहण करनेमें अभिहत दोष है।
इस दोषके मूलमें दो भेद हैं-एक देशाभिहत दूसरा सर्वाभिहत । देशाभिहतके दो भेद हैं-एक आदत दूसरा अनादृत । सर्वामिहतके चार भेद हैं-स्वग्रामागत परग्रामागत स्वदेशागत परदेशागत । जिस ग्राम नगर या देशमें मोक्ता यति उपस्थित हो उसको स्वग्राम या स्वदेश और बाकीको परग्राम तथा परदेश समझना चाहिये। एक ही पक्तिमें स्थित तीन अथवा साथ मकानों से जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि एक दाताका मकान और उसके दोनो तरफ तीन तीन मकान इस तरह एक ही सरल पंक्तिके सात मकानोंमेंसे आये हुएको आदत और उनके सिवाय दूसरे मकानों या स्थानों से आये हुए औषधाहारादिको अनादृत कहते हैं । एक मुहल्लेसे दूसरे मुहल्ले में लाये गये भोजनादिको स्वग्रामागत और पाकीको परग्रामागत कहते हैं। इसी तरह स्वदेशागत और परदेशागतका भी स्वरूप समझना चाहिये ।
उद्धन और आच्छेब दोषके स्वरूपका निरूपण कर हैं:--
बध्याय