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यदि दाता अपनोलये पकते हुए भात दाल आदि धान्यमें अथवा उसकेलिये पकते हुए जल-अधेनमें स. नियोंको दान देनेके अभिप्रायसे-" आज तो हम साधु महाराजको आहार देंगे" इस संकल्पसे वावल दाल आदि डाले तो उसकी इस क्रियाको साधिक दोष कहते हैं । अथवा भोजनके पकने-तयार होनेतक पूजा धर्म आदि विषयोंके प्र. नादिके छलसे साधुओंके रोक रखनेको भी साधिक दोष कहते हैं। इस दोषका दूसरा नाम अध्यधिरोध भी है।
दो प्रकारके पूतिदोषको बताते हैं।
| धर्म
अनगार
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प्रति प्रासु यदप्रासुमिश्रं योज्यमिदंकृतम् । नेदं वा यावदार्येभ्यो नादायीति च कल्पितम् ॥ ९॥
जो द्रव्य स्वरूपसे प्रासुक है. उसमें यदि अप्रासुक वस्तु भी मिला दी जाय तो उसको पूति दोषसे दूषित समझना चाहिये। इसको पूतिदोषका अप्रासुकमिश्रण नामका पहला भेद समझना चाहिये । इसी प्रकार किसी वस्तुकी अपेक्षासे ऐमी कल्पना करना कि " इस पात्रद्वारा अथवा इसमें बनाये हुए अमुक पदार्थका यद्वा इस भोजनका दान साधुओंको न होजाय तबतक इसका उपयोग किसीको भी न करना चाहिये" इसे प्रतिदोष कहते हैं । यह पूनिदोषका पूतिकर्मकल्पना नामका दूसरा भेद है । इसका उदाहरण इस प्रकार समझना कि-" हमारे यहांपर यह नवीन चूल जो बनी है उसपर बने हुए भोजनका, अथवा यह नवीन पात्र जो आया है उसका साधुमहाराजके दानमें जब तक उपयोग न करलिया जायगा तबतक दूसरे किसीको भी इसका उपयोग न करना चाहिये," दाताकी ऐमी कल्प. नाको पूतिकर्मकल्पना नामका दोष कहते हैं । इसके चक्की उखली चूल दर्वी और पात्रकी अपेक्षासे पांच भेद होते हैं। यथा:--
मिश्रमप्रासुना प्रासु द्रव्यं पूतिकमिष्यते ।
- चुल्लिकोदूखलं दर्वी पात्रगन्धौ च पञ्चधा । इसी विषयमें और भी कहा है कि:
अध्याय