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अनगार
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अध्याय
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जो अन्न यक्ष राक्षस नाग आदि देवताओंके उद्देशसे अथवा दुःखित दरिद्र व्यक्तियोंके उद्देशसे यद्वा जैन दर्शन से बहिर्भूत आचरण करनेवाले या वेश रखने वालोंके उद्देशसे बनाया गया हो उसको औद्देशिक कहते हैं। इसी प्रकार जो सर्व साधारण के उद्देशसे अथवा पाषण्डियों पार्श्वस्थों और साधुओंके उद्देश से भोजन बनाया जाता है उसको भी औदेशिक कहते हैं ।
पाषण्डियोंका स्वरूप पहले बता चुके हैं। पार्श्वस्थ पांच प्रकार के होते हैं, अवसन पार्श्वस्थ मृगचरित प्रकट और कुशील । यथा,
" वृत्तेऽलसोऽवसन्नः पार्श्वग्थो मलिनपरशेष्टेऽनिष्टे । संसको मृगचरितः स्वकल्पिते प्रकटकुचरितस्तु कुशीलः ॥
चारित्र में प्रमादी रहनेवालेको अवसन्न, जिसका सम्यग्दर्शन मलिन हो जाय उसको पार्श्वस्थ, जो इष्टानिष्ट विषयोंमें आसक्त रहनेवाला है उसको मृगचरित, स्वकल्पित आचरण करनेवालेको प्रकट, और खोटे आचरण करनेवालेको कुशील कहते हैं ।
पूर्वोक्त जिनलिङ्गके धारक २८ मूलगुणोंका पालन करनेवाले निर्ग्रन्थों को साधु कहते हैं। अत एव निमित्तभेदसे औदेशिक अमके चार भेद होजाते हैं । सर्व साधारणके उद्देशसे दिया हुआ, पाषंडियों के उद्देश से दिया हुवा, पार्श्वस्थोंके उद्देशसे दिया हुआ, और साधुओंके उद्देशसे दिया हुआ । आगम के अनुसार इनके क्रमसे चार नाम हैं, - उद्देश, समुद्देश, आदेश, और समादेश ।
उद्गम दोषके दूसरे भेद साधिकका स्वरूप दो प्रकार से बताते हैं
स्यादोषोध्यधिरोधो यत्स्वपाकं यतिदत्तये । प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वाऽऽपचनाद्यतेः ॥ ८ ॥
धमे०
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