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अनगार
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अन-मोज्यपदार्थ के सम्बन्ध जो दोष होते हैं उनको आहारदोष कहते हैं । इसके शाङ्कित पिहित आदि दश मेद हैं। इनके सिवाय भुक्तक्रियासम्बन्धी चार दोष और भी हैं। यथा-अङ्गार धूम संयोजन और प्रमाण । इस प्रकार इन उपर्युक्त दोषों के कुल छयालीस भेद हुए । इन सबसे भिन्न अधःकर्म नामका एक दोष और भी है जिसको कि हेतदोष भी कहते हैं । इसको छयालीस दोषोंसे भिन्न बतानेका कारण यह है कि यह उन सब दोषोंसे बडा-महादोष है क्यों कि इसमें हिंसाका सम्बन्ध रहता है । चूल चक्की ओखली बुहारी और पानी भरना इन पांच क्रियाओंको पंचसूना कहते हैं। जिस काम करने में इन पंच सूनाओंके द्वारा प्राणियोंकी-पदकायिक जीवोंकी हिंसा होती है उसको अथवा स्वयं सूना और प्राणिहिंसाको ही अधःकर्म कहते हैं। अतएव वसतिकादिके बनवाने या सुधारने आदिमें जो हिंसा होता है उसको अधःकर्म ही समझना चा हिये । इस शब्दका अनुगत अर्थ भी ऐसा ही होता है कि जो कर्म अधोगतिका निमित्त है उसको अप्रकर्म कहते हैं। यह गृहस्थोचित निकृष्ट व्यापार माना गया है। साधुओंको न तो यह कर्म करना ही चाहिये और यदि कोई करता हो तो उसकी अनुमोदना भी न करना चाहिये । फलतः संयमियोंको तो यह दूर ही से छोड देना चाहिये । यदि कोई साधु वैयावृत्यको छोडकर अपने भोजनकेलिये इस गृहस्थोंके कामको करने लगे तो उसको श्रमण न कहकर गृहस्थ कहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणेहि णिप्पण्णं ।
आधाकम्म णेयं सयपरकदमादसंपण्णं ।। षटकायिक जीवोंकी विराधना अथवा पीडासे उत्पन्न हुई आहारादि वस्तको अधःकर्म कहते हैं। चाहे तो वह स्वयं बनाई हो अथवा दूसरेने बनाई हो। उद्गम और उत्पादना ये दोनो शब्द अन्वर्थ हैं इसी बातको दिखाते हैं।
भक्ताद्युद्गच्छत्यपथ्यैर्ययैरुत्पाद्यते च ते । दातृयत्योः क्रियाभदा उद्गमोत्पादनाः क्रमात ॥४॥
अध्याय
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