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अनगार
तब तो इनको उद्गमशुद्धि आदि शब्दोंसे कहते हैं। और ये यदि आगमके अनुसार ठीक न हों तो इनको ही दोष शब्दसे कहते हैं । उद्गमादिशब्दोंका अर्थ आगे चलकर यथास्थान करेंगे। यहांपर केवल उनके भेद बताते हैं, सो भी दोषोंकी अपेक्षासे । क्यों कि पिण्डशुद्धिमें दोषोंका न रहना ही अभीष्ट है । इन भेदोका स्वरूप भी आगे चलकर लिखेंगे।
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उद्गमदोषके सोलह मेद हैं, और उत्पादना दोषके भी सोलह भेद हैं, किंतु आहारसम्बन्धी शङ्कितादि क दश दोष हैं और संयोजना प्रमाण अङ्गार तथा धूम इनका एक एक ही भेद है । इस तरह कुल मिलाकर दोषोंके छयालीस भेद हैं । हेतुदोषको ही अधाकर्म कहते हैं । इनके सिवाय पिण्डके ही विषयमें पूयादिक चौदह मल और भी होते हैं जिनका कि वर्णन आगे चलकर करेंगे । इसी प्रकार अन्तरायके भी बत्तीस भेदोंका व्याख्यान मलोंके बाद ही करेंगे । अब यहांपर क्रमप्राप्त उद्गम और उत्पादना दोषोंका स्वरूप तथा उनकी संख्या बताते हैं:
दातुः प्रयोगा यत्यर्थे भक्तादौ षोडशोद्गमाः।
औदेशिकाद्या धाग्याद्याः षोडशोत्पादना यतेः॥२॥ दाताके द्वारा आहार औषध वसतिका और उपकरण प्रभृति देय वस्तुओंके देने में जो दोष होते हैं उनको उद्गम दोष कहते हैं । इनके औद्देशिकादिक सोलह भेद हैं । अपने लिये भोजनादि बनवाने आदिके लिये किये गये प्रयोगोंको उत्पादना दोष कहते हैं। इसके भी धात्री दूत आदि सोलह भेद हैं।
शेष दोषोंका भी उद्देश-स्वरूपकथन करते हैं :
शङ्किताद्या दशानन्ये चत्वारोगारपूर्वकाः। षट्चत्वारिंशदन्योधःकर्म सूनाङ्गिहिंसनम् ॥३॥
अध्याय
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