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अनगार
धर्म०
'तप दो प्रकारका है-एक बाह्य दूसरा अन्तरङ्ग । यह दोनो ही प्रकारका तप चारित्रम अन्तभूत हो जाता है । क्योंकि अनशनादिक जो बाह्य तप हैं उनका सम्बन्ध भोजनप्रभृति बहिर्भूत पदार्थोंके ही त्यागादिकसे है। इसी प्रकार चारित्रके विषयमें भी बाह्य पदार्थों का त्याग करना ही पड़ता है। क्योंकि जो पुरुष शरीरके द्वारा भोगमें आनेवाले विषयों अथवा सुखौंका परित्याग करदेता है वही चारित्रका आराधन करसकता है, न कि शारीरिक सुखोंमें आसक्तचित्त रहनेवाला । इससे सिद्ध है कि बाह्य तप इस प्रकरणमें निर्दिष्ट चारित्रका ही परिकर है। इसी प्रकार अन्तरङ्ग तप भी चारित्रमें अन्तर्भूत है। क्योंकि जिस प्रकार चारित्र नवीन कौंको आनेसे रोकता है और संचित कोको नष्ट करता है उसी प्रकार तप भी करता है । प्रायश्चित्तादिक अन्तरङ्ग तपके द्वारा भी संवर और निर्जरा दोनो ही कार्य होते हैं । जैसा कि " तपसा निर्जरा च" इस सूत्रके द्वारा भी बताया है।
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इसी अर्थको प्रकारान्तरसे स्पष्ट करते हैं:त्यक्तसुखोनशनादिभिरुत्सहते वृत्त इत्यघं क्षिपति । प्रायश्चित्तादीन्यपि वृत्तेन्तर्भवति तप उभयम् ॥ १८३ ॥
अनशनादिकके द्वारा बाह्य सुखोंका परित्याग करदेनेवाला ही चारित्रके विषयमें सोत्साह प्रवृत्त हो सकता है और प्रायश्चित्तादिक भी चारित्रकी तरहसे ही पापकर्मोका क्षय करते हैं । अत एव दोनो ही प्रकार के तपको चारित्र में ही अन्तर्भूत समझना चाहिये।
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अध्याय
इति चतुर्थोऽध्यायः॥
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अ.घ.६६