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बनमार
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मध्याय
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प्रेमास्तत्र जगच्छ्रियम्बलडशेपीर्ष्यन्ति मुक्तिश्रिये ॥ १७८ ॥
विषय— भोगोंमें तृष्णारहित होकर निरंतर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतका आस्वाद लेने बाला और सम्यक् चारित्रका आराधन करने में केवल उद्यम ही नहीं किन्तु उपयोग और सदा उसका अनुष्ठान करने वाला, तथा निष्कंप रूपसे क्षुधादि परीषहोंपर विजय प्राप्त करनेवाला पुरुष ऐसे पुण्यकर्मका संचय क रता है कि जिसके उदयसे बढता हुआ है नवीन प्रेम जिनका ऐसी संसारकी सम्पूर्ण सम्पत्तियां - लक्ष्मियां बीसुलभस्वभाव के कारण अपने स्वामीपर- उक्त चारित्रभक्तिके अनुरापसे विशिष्ट पुण्यकर्मका संचय करनेवाले पुरुषपर जब कि केवल कटाक्षपात ही करनेवाली मोक्षलक्ष्मीसे ईर्ष्या करने लगती हैं तब उसके संगम करनेपर तो बात ही क्या है ?
भावार्थ – उक्त प्रकार की चारिश्वाराधना के अनुराग से विशिष्ट पुण्यका संचय करनेवाला पुरुष जगत् के सम्पूर्ण मोगोंको भोगकर अंतमें कृतकृत्य होजाता है । जैसा कि कहा भी है कि:
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुर मणुवराय विहवेहिं । जीवस्स चरितादो दंसणणाणप्पहाणाओ ||
दर्शन और ज्ञानका जिसमें प्राधान्य पाया जाता है ऐसे चारित्र के द्वारा जीवको सुर असुर मनुष्य और उनके राजवैभवों के साथ साथ निर्वाण भी सिद्ध होता है ।
तपका यद्यपि चात्रि में ही अन्तर्भाव है। तो भी उसकी विशेषता जाहिर करनेकेलिये यहांपर अथशब्द के द्वारा उसका पृथक् व्याख्यान समझेलना चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि:
चरणं हितं हि जो उज्जमो आउज्जणाय जा होइ ।
सो चैव जिणेहिं तओ भणिओ असढं चरंतस्स ॥
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