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बनगार
समिातियोंके साथ साथ महावत और अणुव्रतोंके पालन करनेका नाम संयम और विना समितियों के इनके पालन करनेका नाम व्रत है।
इस प्रकार समितियोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब शीलका वर्णन क्रमप्राप्त है। क्योंकि इस अध्यायकी आदिमें समितियों के व्रत अथवा चारित्ररूपी वृक्षका रक्षक शीलको ही बताया है । अत एव यहांपर शीलका लक्षण और उसके विशेष भेदोंको बताते हुए उसकी उपादेयताका निरूपण करते हैं:
शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् ।
संज्ञाक्षविरतिरोधी क्ष्मादियममलात्ययं क्षमादीश्च ॥ १७२॥ जिसके द्वारा व्रतोंकी रक्षा की जाय अथवा उनका पालन किया जाय उसको शील कहते हैं। इसके पालन करनेमें शुभयोगरूप प्रवृत्ति और अशुभयोगकी निवृत्ति करनी चाहिये, संज्ञाओंका परिहार और इन्द्रियों का निरोध करना चाहिये, पृथिवी आदि दश प्रकारके जीवों के प्राणव्यपरोपणका त्याग और उनके अतीचारोंका परिहार करना चाहिये, तथा उत्तमक्षमादि दशधर्मको धारण करना चाहिये ।
वध्याय
पुण्यास्रवकी कारणभूत मनवचनकायकी प्रवृत्तिको अथवा जिनसे समस्त कर्मोंका क्षय किया जा सकता है उन गुप्तियोंको शुभयोग कहते हैं । अतए। इसके तीन भेद हैं । इसी प्रकार अशुभयोगनिवृत्तिके भी तीन भेद हैं। आहार भय मैथुन और परिग्रहकी अभिलाषारूप संज्ञाओंकी निवृत्ति चार प्रकारकी है । तथा स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र इनका निरोध पांच प्रकारका है। संयमके विषयकी अपेक्षा दश भेद हैं । यथा-पृथिवी जल तेज वायु प्रत्येक साधारण द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । एवं धर्मके भी दश भेद है-उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिश्चन्य और ब्रह्मचर्य । इन भेदोंका परस्परमें गुणा करनेसे शीलके अठारह हजार भेद होते हैं । यथा-तीन प्रकारकी शुभयोगप्रवृत्तिके तीन भेदोंके साथ
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