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बनगार
__ जो साधु समितियों का भले प्रकार पालन कर वह दैववश अपनेसे मरे प्राणियोंका वध होजानेपर भी. जिस प्रकार कमल या उसका पत्ता पानी मे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार, पापकर्मसे रंचमात्र भी उपश्लिष्ट नहीं होता। किंतु इसके विरुद्ध जो इन समितियों में आदग्बुद्धि नहीं रखता और इनका पालन नहीं करता वह परप्राणियोंका व्यपरोपण न करके भी तजनित हिंसादोषसे अथवा पापकर्मसे लिप्त होजाता है । एवं इन समितियोंके ही माहात्म्यसे महाव्रत और अगुव्रत भी संयमस्थानको पाकर प्रकाशमान होते तथा पूर्वोक्त तीनों प्रकार की गुप्तियां भी जागृत होती हैं । अत एव जिनका निरतिचार प.लन अहिंसादिका, और न पालन हिंसादि दोषोंका कारण है और जिनके निमित्तसे व्रत संयमरूप होजाते तथा गुप्तियां उद्धृत होती हैं उन समितियोंका सत्पुरुषोंको नित्य ही-जब गुप्तियों का पालन न कर सके उस समय, अवश्य ही सेवन करना चाहिये। क्योंकि कहा भी है किः--
अजदाचारो समणो छस्सुवि काएसु बंधगोत्तिमदो।
चरति जदं जदि णिचं कमलं व जले णिरुवलेवो। जो श्रमण आचरण करने में असावधानता रखता है उसके षटकायसम्बन्धी पापका बन्ध होता है किंतु जो यत्नपूर्वक आचरण-संयमका पालन करता है वह पापकर्मसे इस तरह अलिप्त रहता है जैसे कि कमल जलसे ।
__ऊपर समितियों का एक फल यह भी बताया है कि इनके निमित्तसे व्रत संयमस्थानको प्राप्त होजाते हैं। यहांपर प्रश्न होसकता है कि व्रत और संयममें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर वर्गणाखण्ड के बन्धनाधिकारमें इस प्रकार दिया है कि
"संयमविरईण को भेदो ? ससमिदि महब्ययाणुव्वयाई संयमो, समिदीहिं विणा महव्वयाणुव्वयाई विरदी ॥" इति ।
अध्याय