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बनचार
जो साधु विनय करनेमें तत्पर और वैयाइत्यादिकमें चल तथा वैराग्यमावनाओंमें रत और समस्त संघका प्रतिपालन करनेवाला एवं जितेन्द्रिय होता है उसको प्रबाश्रमण कहते हैं । इसको उचित है कि जबतक सूर्यका अस्त न होजाय-उदय बना रहे तबतक साधुओंको दिनमें ही, रात्रिके समय मलमूत्रादिका उत्सर्ग करने केलिये क्रमसे तीन स्थानतक देखकर एक उचित स्थान निश्चित करले । यदि पहिला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, और दूसरा भी अशुद्ध हो तो तीसरा स्थान निश्चित करे। इस निश्चित स्थानपर ही साधुओंको रात्रिके समय मलोत्सर्ग करना चाहिये । फिर भी कदाचित् किसी प्रकारकी शंका हो जाय तो वाम हाथसे उस स्थानका संस
कर अपना संदेह दूर करलेना चाहिये तब मलोत्सर्ग करना चाहिये । ऐसा करनेपर ही उत्सर्गसमिति साधुओंके मानी जा सकती है। जैसा कि कहा भी है कि
वणदाहकिसिमसिकरे मंडी अणुपरोपविचिणे । अबगदजंतुधिषिते उचारादी विसरिजनो। उच्चार पासवणं सिंघाणयादिजंदव्यं ।
अवित्तभूमिदेसे परिलेहिता विसबिनो। वनवनिके द्वारा दम्प, अथवा कष्ट-जो कि हलके द्वारा पुनः पुन विदीर्ण करदी गई हो, यद्वा स्मशानापिके द्वारा जली हुई, अथवा ऊपर भूमिमें जहाँपर कि किसीकी रोकटोक नहीं और जीवजन्तुजोंकी वाचा
मी नहीं है एवं बो अचित्त-प्राशुक है, साधुओंको प्रतिलेखन करके-उस स्थानको अच्छी तरह देखशेषकर | महाकालेप्पा आदिका विसर्जन करना चाहिये । तथा:--
रात्री तस्वस्थाने प्रहाश्रमणवीषिते । कुर्वन् महानिरासायापहवसर्शनं मुनिः । द्वितीयाचं भवेत्ता साधुरिति । गुत्वस्यावशे दोषो न पचाद् गुरुकं यतेः ।।
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बचाव