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बनगार
गुणा करनेपर नौ मेद और फिर इनका चार प्रकारकी संज्ञानिवृत्तिसे गुणा करनेपर ३१ मेद एवं इनका मी पांच इंन्द्रियनिरोषसे गुणा करनेपर एकसौं अस्सी मेद तथा इनका भी निरतीचार दश प्रकारके संयमसे गुणा करनेपर एक हजार आठसौ और इनका भी फिर दश धर्मसे गुणा करनेपर अठारह बार भेद होते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:--
योगे करणसंज्ञाक्षे धरादौ धर्म एव च।
अष्टादश सहस्राणि स्युः शीलानि मिथोवरे ।। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएं, पांच इन्द्रिय, दश संयम और दश धर्म इनका परस्परमें गुणा करने पर शीलके अठारह हजार भेद होते हैं। जो मुनिश्रेष्ठ मनोयोग और आहारसंज्ञासे रहित तथा मनोगुप्तिका पालन करनेवाला स्पर्शनेन्द्रियसे संवृत, पृथिवीकायके संयमका पालक और उत्तम क्षमाका धारक होता है उस विशुद्ध पनिके अठारह हजार शीलके भेदोंमेंसे पहिला मेद समझना चाहिये । तथा जो मुनिश्रेष्ठ इन्ही विशेषगोंसे युक्त है किन्तु मनोगुप्तिकी जगह वाग्गुप्तिका पालन करनेवाला है उसके दूसरा भेद समझना चाहिये।
और जो वाग्गुप्तिकी जगह कायगुप्तिका पालन करता है उसके तीसरा भेद समझना चाहिये । जो वचनयोग रहित मनोगुप्तिका पालन करता किंतु शेष उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त है उसके चौथा भेद, और जो वचनयोगरहित वचनगुप्तिका पालन करते हुए शेष उक्त विशेषणोंसे युक्त है उसके पांचवाँ भेद तथा जो वचनयोगरहित कायगुप्तिका पालन करते हुए शेष विशेषणोंसे युक्त है उसके छट्टा भेद समझना चाहिये । इसी प्रकार गुप्ति योग संज्ञा और इन्द्रियादिकोंका अक्षसंचार करके क्रमसे सम्पूर्ण भेद समझलेने चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
मनोगुप्ते मुनिश्रेष्ठ मनःकरणवर्जिते । थाहारसंज्ञया मुक्त स्पर्शनेन्द्रियसंवृते । सघरासंयमे मन्तिसनाथे शीलमादिमम् । तित्यविचलं शुद्ध तथा शेषेष्वपि क्रमः ।
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बचाय
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