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अनगार
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बध्याय
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यहांवर संयमको ऋद्धिरूप फरके द्वारा प्रीतिकर बताकर उसके विषय में अतिक्रमको सूचित किया है । इसी प्रकार ' लांघकर ' शब्द के द्वारा व्यतिक्रम, ययेादि शब्दों के द्वारा अतीचार तथा चारो तरफ से आदि वाक्य के द्वारा अनाचारको सूचित किया है। क्योंकि अतिक्रनादिकका स्वरूप आगन में इसी प्रकार कहा है कि:
क्षतिं मनःशुद्विरि घेरविक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेर्विलड्डूनम् । प्रभोतिवारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहाति स कताम् ॥
संयमके विषय में मानसिक शुद्धि न रहने को अतिकन, शीलकी वाडके उल्लंघन होनेको व्यतिक्रम, विषयों में प्रवृत्ति होने को अतीचार, और उन विषयोंमें अत्यंत आसक्त होनेको अनाचार कहते हैं।
चारित्रविनयका स्वरूप बताते हुए उसका पालन करनेके लिये साधुओंको प्रेरित करते हैं। सदसत्स्वार्थकोपादिप्रणिधानं त्यजन् यतिः ।
भजन्तमितिगुतीच चारित्रविनयं चरेत् ॥ १७५ ॥
यहां चारित्र शब्द काही ग्रहण किया है। अतएव चारित्र में कहिये अथवा व्रतोंमें कहिये निर्मलता उत्पन्न करने के लिये प्रयत करने को ही चारित्रविनय करते हैं। यतिओंको उचित है कि इष्ट और अनिष्ट दोनों ही प्रकार के इंन्द्रियविषयोंमें रागद्वेष करने का और क्रोध मान माया आदि कषायों तथा हास्या दिक नोपायों का परित्याग करें। प्रशस्त विषयों में राग और अप्रशस्त विषयों में द्वेष न करें। तथा आत्माको क पायरूप परिणत न होने दें। साथ ही पूर्वोक्त समितियों और गुप्तियों का पालन करे । क्योंकि ऐसा करनेपर ही उनके चारित्रविनयकी सिद्धि हो सकती है।
इस मरतक्षेत्र और दुःषमकाल में मी जो मोक्षमार्ग में विहार कर रहे हैं और उनमें प्राधान्यको प्राप्त क
धर्म ०
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