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वनमार
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अध्याय
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र चुके हैं उनमें श्रामण्यका बोध करानेवाले संयमका निरूपण करते हुए भावतः उनकी स्तुति करते हैं
सर्वावद्यनिवृत्तिरूपमुपगुर्वादाय सामायिक, यश्छेदैर्विधिवद्व्रतादिभिरुपस्थाप्याऽन्यदन्त्रेत्यपि । वृत्तं बाह्य उतान्तरे कथमपि च्छेदेप्युपस्थापय, - त्यैतिह्यानुगुणं धुणमिह नौम्येदंयुगीनेषु तम् ॥ १७३ ॥
सम्पूर्ण सावद्ययोग के परित्याग करनेको सामायिक संयम कहते हैं। इसमें संक्षेपसे सभी महाव्रतों का संग्रह होजाता है । जैसा कि कहा भी है कि
क्रियते यदभेदेन व्रतानामधिरोहणम् । पायस्थूलतालीढः स सामायिक संयमः ॥
यद्यपि सामायिक संयममें बादर संज्वलन कषायका सम्बन्ध रहता है फिर भी इसके धारण करनेवाले के अभेदरूपसे सभी व्रतोंका धारण हो जाता है । अतएव जो साधु दीक्षाचार्य के समीप विधिपूर्वक इस संयमको धारण करके इसके दूसरे विकल्पोंका अभ्यास न रहनेके कारण उनके विषय में प्रमाद होनेपर अपनी आत्माका विधिपूर्वक उन विकल्पों में सामायिक संयमके ही विशेष भेद पांच महाव्रतोंमें और उनके भी परिकर रूप शेष तेईस मूल गुणोंमें आरोपण-उपस्थापन करके छेदोपस्थापना चारित्रको धारण करता है और कभी कभी सामायिक संयमका भी पुनः धारण करलेता है। क्योंकि ऐसी नीति भी है कि जो आदमी केवल सुवर्णमात्रको चाहता है वह कडा कुण्डल अथवा अंगूठी आदि किसी भी वस्तु के मिलजानेको श्रेयस्कर ही समझता है। हां, सर्वथा सुवर्णका अभाव उसको अभीष्ट नहीं रहता। इसी प्रकार सर्वमावद्य के त्यागरूप सामायिक संयम - का अभिलाषी साधु उसके परिकररूप अट्ठाईस मूल गुणोंमें अपनेको उपस्थित कर दूसरे छेदोपस्थापन संयम
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