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नगार
नो चेच्छीलवृति विलंध्य न परं क्षिप्रं यथेष्टं चरन्,
धुन्वन्नेनमयं विमोक्ष्यति फलैर्विष्वक् च तं भक्ष्यति ॥ १७ ॥ ब्रतोंके धारण करने, मन वचन और कायकी प्रवृत्तिका त्याग करने तथा कषायोंका निग्रह इन्द्रियोंका विजय और समितियोंके पालन करनेको संयम कहते है। जैसा कि कहा भी है कि
व्रतदण्डकषायाक्षसनितीनां यथाक्रमम ।
संयमो धारण त्यागो निग्रहो विजयोऽनम् ॥ इस संयमको शालि आदि धान्योंके समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार धान्य खेतमें उत्पन्न होता है. और जिम. प्रकार वह अपनी सस्यसम्पत्तिके द्वारा लोगों का प्रीतिकर होता है उसी प्रकार यह भी बुंधतिशयादिक ऋद्धिरूपी फलों के द्वारा आराधकों को रुचि उत्पन्न किया करता है। अत एव साधुओंको जो कि चारित्रका आराधन करनेकेलिए उद्यत हैं इस धान्यममूह के समान संयमका भक्षण करनेकेलिए उ. त्सुक हुए मनरूपी अदम्य बलीवर्द-सांडका दमन ही करदेना चाहिये । क्योंकि यदि इसका दमन न किया गया तो यह शीघ्र ही संयमरूपी धान्यममूहकी रक्षाकी कारणभूत शीलरूप वाडको लांघकर और यथेष्ट -अभिलषित विषयोंको चरता तथा नष्ट करता हुआ उस संयम-धान्यको केवल उनमे प्राप्त होनेवाले मुख्य और आनुषङ्गि क सस्यादिक फलोंसे वियुक्त करदेगा। इतना ही नहीं किन्तु खूद खाकर उसका चारो तरफसे मर्दन भी कर डालेगा। और इस तरह संयमधान्यको वह बिलकुल ही नष्ट करदेगी।
अध्याय
१ बुद्धितओविय लद्धीविउवणलदी तहेव ओमहिमा ।
ग्सवलअक्वीणा वि य रिद्धीओ मत पण्णता ॥ बुद्धि तप विक्रिया औषध रस बल अक्षीण इस तरह ऋद्धियो सात भंद हैं।