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बनमार
मुनियोंको रात्रिके समय प्रज्ञाश्रमणके द्वारा निराधित स्थानमें मलोत्सर्ग करना चाहिये और अपनी का दूर करनेकेलिये उस स्थानको वाम हाथसे स्पर्श करके देखलेना चाहिये । यदि पहिला स्थान अशुद्ध हो तो दसरा और दूसरा मी अशुद्ध हो तो तीसरा स्थान देखना चाहिये। कदाचित् वीमारी या किसी विशेष कारणवश शीघ्र ही मलका उत्सर्ग होजाय तो आचार्यको उचित है कि साधुको विशेष दण्ड न दे।
जो मुनि अतिचाररहित समितियोंके पालन करनेमें तत्पर रहता है उसको हिंसादिक दोषोंका अभावरूप फल प्राप्त होता है । इस बातको प्रकट करते हैं:--
समितीः स्वरूपतो यतिराकारविशेषतोप्यनतिगच्छन् ।
जीवाकुलेपि लोके चरन्न युज्येत हिंसाद्यैः ॥ १० ॥ स्वरूप अथवा लक्षणकी अपेक्षासे यद्वा पूर्वोक्त उसके विशेषणोंकी अपेक्षासे भी जो साधु समितियोंमें रंचमात्र भी अतिचार नहीं लगनेदेता और सदा उनके पूर्णतया पालन करनेमें सावधान रहता है वह स्थावर और त्रसजीवोंसे व्याप्त संसारमें यथेच्छ विहार करते हुए भी हिंसादि दोषोंसे लिप्त नहीं होता। समितियोंके माहात्म्यका वर्णन करते हुए उनका सदा सेवन करनेकेलिये उपदेश देते हैं:
पापेनान्यवधेपि पद्ममणुशोप्युरेव नो लिप्यते, ययुक्तो यदनाद्वतः परवधाभावेप्यलं वध्यते । यद्योगादधिरुह्य संयमपदं भान्ति व्रतानि द्वया,न्यप्युद्धान्ति च गुप्तयः समितयस्ता नित्यमित्या: सताम् १७१
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