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मनोगुप्तिके अतीचारोंको बताते हैं:रागाधनुवृत्तिा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्यं वा । दुष्प्रणिधानं वा स्थान्मलों यथास्वं मनोगुप्तेः ॥ १५९ ॥
बनमार
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पहले गुप्तियोंका विशेष लक्षण बताते हुए मनोगुप्तिका स्वरूप तीन प्रकारसे बताया जा चुका है । १-रागादिकके त्यागरूप, २ समयके अभ्यासरूप, और ३ रा समीचीन ध्यानरूप । इन्ही ३ प्रकारोंको ध्यानमें रखकर यहांपर मनोगुप्तिके क्रमसे तीन प्रकारके.अतीचार बताते हैं।
उस आत्मपरिणतिको जिसका कि रागद्वेषरूप कषाय तथा मोहरूप परिणाम अनुगमन करते हैं मनोगुप्तिका पहले लक्षणकी अपेक्षासे अतीचार समझना चाहिये । किंतु यह अतीचार उसी अवस्थामें कहा जासकता है जब कि मनोगुप्तिकी अपेक्षा रखते हुए इससे उसके एकदेशका ही भङ्ग हो। क्योंकि अंशभङ्गका ही नाम अाचार है । अतएव यह बात आगेके अतीचारोंके विषयमें भी ध्यानमें रखनी चाहिये ।
दूसरे लक्षणकी अपेक्षासे शब्दार्थज्ञानके वैपरीत्यको अतीचार बताया है । यह कई प्रकारसे होता है किन्तु सामान्यसे इसके तीन भेद हैं । शब्दवैपरीत्य, अर्थवैपरीत्य और ज्ञानवैपरीत्य । व्याकरणशास्त्रके विरोधको अथवा विवक्षित पदार्थक अन्यथारूपसे प्रकाशित करनेको शब्दवैपरीत्य कहते हैं । सामान्यविशेषात्मक आभिधेय वस्तुका नाम अर्थ है । अत एव सामान्यमात्र अथवा विशेषमात्र यद्वा दोनोंके स्वतन्त्र माननेको अर्थवैपरीत्य कहते हैं। जीवादिक द्रव्योंका जैसा स्वरूप बताया गया है वैसा न मानकर अन्यथा मानना इसको भी अर्थवैपरीत्य कहते हैं । शब्द अर्थ अथवा दोनोंके ही विपरीत प्रतिभासका नाम ज्ञानवैपरीत्य है।
अध्याय
तीसरे लक्षणकी अपेक्षासे आरौिद्रध्यानको अथवा समीचीन विषयमें उसके न लगानेको अतीचार कहा