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बनमार
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कालेन्नं मात्रयाश्नन् समितिमनुषजत्येषणायास्तपोभृत् ॥ १६७ ॥ अधः नामके महादोषका आगे चलकर वर्णन करेंगे । पञ्चमूना और प्राणिहिंसा अथवा सूनाओंके द्वारा होनेवाली हिंसाको अधःकर्म कहते हैं। इसका परित्याग करनेवाले और अत एव इन्द्रिय तथा मनके नियमनकी अनुष्ठानरूप तपोलक्ष्मीको निरंतर - पुष्ट करनेवाले साधुके उस समय एषणा नामकी समीचीन प्रवृत्ति समझनी चाहिये जब कि वह मात्राके अनुरूप और योग्य काल में ऐसे अन्न- चतुर्विध आहारको ग्रहण करे जो कि दाताके घरसे वामभागके तीन घर और दक्षिण भागके तीन घर तथा एक उस दाताका घर जहां प्रतिग्रह किया गया हो इस तरह सात घरोंमें रहनेवाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैदय अथवः सचन्द्र के द्वारा भक्तिपूर्वक-निष्कपट अनुरागसे एवं विधिपूर्वक-प्रतिग्रहादि नवधा भक्ति के द्वारा दिया गया हो, जो अपने और परके उपकार करने में समर्थ, शरीरको आयुःप्रमाणके अनुसार स्थिर रखने में क्षम हो, जो भोक्ताके परिणामोंके द्वारा दूषित न किया गया हो अथवा जिसके विषय में भोक्ताके परिणाम विशुद्ध हो, जो पूय रुधिगदिक मलोंसे तथा अधःकर्म महादोषसे रहित हो, जो वीरचर्या अदीन या अयाचकवृत्ति के द्वारा ग्रहण किया गया हो, तथा अन्तराय और अङ्गारादिक एवं शङ्काप्रभृत्ति उद्गमदोष तथा उत्पादना दोषोंसे सर्वथा अलिप्त हो। भोजन बनानेवाले अथवा दाताके प्रयोगसे भोजन बनाने में दोष होते हैं उनको उद्गम दोष कहते हैं। इसके औद्देशिकादिक सोलह भेद हैं। इसी प्रकार भोक्ताके द्वारा भोजन बनवानेमें या उसके सम्बन्धसे जो दोष होते हैं उनको उत्पादना दोष कहते हैं। इसके छात्रीदत आदि भेद हैं। एवं भोजनक्रियामें जो विघ्न उपस्थित होते हैं उनको अन्तराय कहते हैं। इसी प्रकार भोजनसम्बन्धी अङ्गारादिक तथा भोज्यवस्तुसम्बन्धी शङ्कादिक दोष भी हैं जिनका कि विशेष वर्णन आगेके अध्यायमें करेंगे।
भावार्थ--जो साधु भोजनके सम्बन्धमें बताई हुई आठ प्रकारकी शुद्धियोंके अनुसार छयालीस दोष चौदह मल और बत्तीस अन्तराय तथा अधःकर्म महादोषसे रहित और उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त भोजनको विधिपूर्वक ग्रहण करता है उसीके एषणा नामक समिति समझनी चाहिये ।
अध्याय