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अनगार
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है। इस प्रकार मनोगुप्तिके लक्षणभेदकी अपेक्षासे तीन प्रकारके अतीर बताये हैं। किन्तु इतना अवश्य समझलेना चाहिये कि ऐसी कोई भी क्रिया अथवा परिणाम मनोगुप्ति के अतीचारोंमें ही परिगणित होंगे जो कि अपेक्षाविशेषके अनुसार मनोमुप्तिके आंशिक भंगका कारण हों। क्योंकि अंशभंगका ही नाम अतीचार है। यह बात आगेके अतचिारोंके विषयमें भी ध्यानमें रखनी चाहिये । क्रमप्राप्त वचनगुप्ति के अतीचारोंको दिखाते हैं।
कार्कश्यादिगरोद्गारो गिरः सविकथादरः ।
हंकारादिक्रिया वा स्याद्वारगुप्तेस्तद्वदत्ययः ॥ १६॥ भाषासामितिके विषयमें कर्कशा परुषा कड़ी आदि दश प्रकारके वचनदोष आगे चलकर गिनावेंगे। ऐसे वचनोंको विषके समान समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार विषके निमित्तसे उसके भक्षण करनेवालेको मोह अथवा संतापादिक हुआ करते हैं उसी प्रकार कर्कश आदि वचनोंके निमित्त उसके सुननेवालेको भी संतापादिक हुआ करते हैं। अत एव ऐसे वचनोंका श्रोताओंके प्रति उच्चारण करना वचनगुप्तिका अत्तीचार है। इसी प्रकार विकथाओंमें आदर-उनको प्रकाशित करनेकेलिये उद्यम करना भी वचनगुप्तिका अतीचार है। मोक्षमार्गके विरुद्ध कथोपकथनको विकथा कहते हैं । इसके स्त्री राजा चोर और भोजन इन विषयोंकी अपेक्षासे चार भेद हैं। मुखसे हुंकारादिकके द्वारा अथवा खकार करके यद्वा हाथ और भृकुटिचालन क्रियाओंके द्वारा इङ्गित करना भी वचनगुप्तिका अतीचार है।
पहिले वचनगुप्तिका स्वरूप दो प्रकारसे बताया है। एक तो दुर्वचनके त्यागरूप दूसरा मौनरूप । उपयुक्त आदिके दो अतीचार प्रथम लक्षणकी अपेक्षासे हैं और तीसरा अतीचार मौनरूप लक्षणकी अपेक्षासे है।
अ. घ. ६२
अध्याय