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अनगार
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सुवृत्तं पातुं वा विमलयितुमम्बा श्रुतविदः । विदुस्तिस्रो गुप्तीरपि च समितीः पंच तदिमाः,
श्रयन्त्विष्टायाष्टौ प्रवचनसवित्रीब्रतपराः ॥ १५३ ॥ सावद्यकर्मसे विरत रहनेवाले अथवा योगानुष्ठान करनेकेलिये प्रवृत्ति करनेवाले साधुओंका शरीर ही जिसका शरीर है ऐसे अहिंसारूप अथवा अहिंसाप्रभृति पांच प्रकारके व्रतरूपी समीचीन चारित्रको उत्पन्न करने केलिये तथा सदा निर्मल बनाये रखनेकेलिये आगमके जाननेवाले आचार्य तीन गुप्तियों और पांच समितियोंको माता समझते हैं। अत एव उक्त व्रतोंमें निष्ठा रखनेवाले अथवा पूर्णतया पालन करनेकेलिये तत्परता रखनेवाले मुमुक्षुओंको अपना आभिमत प्रयोजन सिद्ध करनेकेलिये गुप्तिसमितिरूप आठो प्रवचनमाताओंका जो कि रत्नत्रयरूप प्रवचनकी जननी हैं अवश्य ही आश्रय लेना चाहिये, आराधन करना चाहिये ।
भावार्थ-संतान के प्रति माताके मुख्यतया तीन काम हुआ करते हैं, १ प्रसव, २ पालन, और ३ शोधन । संतानशरीरके उत्पन्न करनेका नाम प्रसव है तथा आपत्तिकर या हानिकर विषयोंसे उसके बचाव रखने एवं पोषक पदार्थोंके द्वारा पुष्टिलाभ करानेको पालन, और अन्तरङ्ग दोषोंको दूर कर शिक्षाभ्यासादिके द्वारा गुण उत्पन्न करनेको शोधन कहते हैं। जिस प्रकार माता अपनी संतानके प्रति इन तीनों कर्तव्योंका पालन करती है, उसी प्रकार गुप्ति और समिति भी उक्त व्रतोंके प्रति ये तीनो ही काम पूरे किया करती हैं । अत एव आगममें इनको माता कहा है । योगियोंका शरीर ही व्रतोंका शरीर है, उसको ये उत्पन्न करती हैं और पालन तथा नैर्मल्यके द्वारा उनको पुष्ट तथा समृद्ध बनाती हैं । अत एव उक्त व्रतोंके पालन करनेवालेको उचित है कि वह इष्टसिद्धिकेलिये इन आठ माताओंका-३ गुप्ति और ५ समितिका आराधन करे । क्योंकि ये रत्नत्रयकी जननी हैं।
गुप्तिका सामान्य लक्षण बताते हैं:-- गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः ।
अध्याय