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अनगार
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अध्याय
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Kathakathan
बाह्य पदार्थोंसे है । अत एव मुमुक्षु साधुओं को सबसे पहले मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रियविषयमें क्रमसे होनेवाली रागद्वेष परिणतिको छोडनेका प्रयत्न करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:--
निवृत्तिं भावयेद्यावन्निवन्त्यं तदभावतः । प्रवृत्तिर्न निवृत्तिश्च तदेव पदमव्ययम् ॥
रागद्वेषौ प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेचनम् । तीच बाह्यार्थसंद्ध तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥
निवर्त्य रहने निवृत्तिका भावन- ध्यान करना चाहिये किंतु उसके छूटजानेपर आत्मासे उस अव्यय पदका ही ध्यान करना आवश्यक है जहां न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति । रागद्वेषको प्रवृत्ति और उसके त्यागको निवृति कहते हैं । इन दोनोंका सम्बंध बाह्य पदार्थोंसे है। मनोज्ञामनीज्ञ विषयों में ही क्रमसे रागद्वेषकी परिणति होती है अत एव सबसे पहले मुमुक्षु भिक्षुओंको इनका ही परित्याग करना चाहिये ।
इस प्रकार परिग्रह के परित्यागरूप आकिंचन्य महाव्रतका वर्णन पूर्ण हुआ । अव साधुओंके व्रत, अपनी अपनी भावनाओंके द्वारा स्थिरताको प्राप्त होकर ही उनके अभिमतको सिद्ध किया करते हैं ऐसा उपदेश देते हैं:पञ्चभिः पञ्चभिः पञ्चाप्येते ऽहिंसादयो व्रताः ।
भावनाभिः स्थिरीभूताः सतां सन्तीष्टसिद्धिदाः ॥ १४९ ॥
हिंसा झूट चोरी कुशील और परिग्रह ये पांच पाप है । इन पांचों पापों के परित्यागको
ही अहिंसादिक पांच महाव्रत कहते हैं जिनका कि पहले सविस्तर व्याख्यान किया जाचुका है। इनमेंसे प्रत्येव्रतकी पांच पांच भावनाओंका भी स्वरूप पहले लिखा जा चुका है । उन भावनाओंके द्वारा स्थिर - निश्चलताको प्राप्त होकर ही ये महाव्रत साधुओंके अभिमत अर्थको सिद्ध कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । अत एव आत्महितैषी भिक्षुओं को उन भावनाओंमें अवश्य ही अच्छी तरहसे दृढ रहना चाहिये ।
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धर्म
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