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अनगार
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यत्किचिद्रुचितं चिरं समतया स्मृत्त्वातिसाम्योन्मुखम् । ध्यात्त्वार्हन्तमुतस्विदेकमितरेष्वत्यन्तशुद्ध मनः,
सिद्धं ध्यायदहंमहोमयमहो स्याद्यस्य सिद्धः स वै ॥ १५२ ॥ ऊपर जिन मैत्री आदिक भावनाओं के विषयमें वर्णन किया गया है उनके विषयमें कहा है कि:-...
, एता मुनिजनानन्दसुधास्यन्दैकचन्द्रिकाः।
ध्वस्तरागादिसक्लेशा लोकाग्रपथदीपिकाः ।। ये भावनाएं मुनिजनोंकेलिये आनन्दामृतकी वर्षा या सिञ्चन करनेवाली अपूर्व चन्द्रिकाके समान हैं, रागादिक संक्लेशपरिणामोंको ध्वस्त करनेवाली और मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेकेलिये दीपिकाके समान हैं। अत एव इन भावनाओंका अभ्यास करके अपनेको अप्रशस्त रागद्वेष कषायसे रहित कर संप्रदायके अविच्छेद और प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणादिक हेतुओंसे अनुगृहीत-पूजित आगमके अनुसार जीवादिक ध्येय व याथात्म्यरूपसे निर्णय-श्रद्धान कर रागद्वेषके अविषय किंतु उस श्रद्धाके विषयभूत किसी भी अनियत चेतन या अचेतन पदार्थका चिरकालतक-जबतक परमौदासीन्यकी योग्यता प्राप्त न हो जाय तबतक स्मरण-ध्यान करना चाहिये । जैसा कि कहा भी है किः
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अध्याय
यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते ।।
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जिस विषयमें मनुष्य अपनी बुद्धिको उपयुक्त किया करता है उसी विषयमें उसकी श्रद्धा होती है, उसी विषयमें उसका चित्त लीन हुआ करता है।