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क्रूर कर्म करनेवाले, निःशङ्कहोकर देवता और गुरुओंकी निन्दा करनेवाले, तथा अपनी प्रशंसा करनेवालोंके साथ उपेक्षा-रागद्वेषरहित प्रवृत्ति-मौन धारणादि करनेको माध्यस्थ्य कहते हैं ।
इस प्रकार साधुओंको इन भावनाओं के द्वारा अपने उपर्युक्त महावत अच्छी तरह दृढ बनादेने चाहिये जिससे कि मुक्तिरूप फलको वे उत्पन्न करसकें ।
इन भावनाओंके सिवाय मोक्षशास्त्रमें " हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ” और “ दुःखमेव वा", इन दोनो सूत्रोंके द्वारा समस्त व्रतोंमें व्यापक-सामान्यतः सभी व्रतोंकेलिये उपयोगी और भी जिन भावनाओंका उपदेश दिया है उनको भी हम प्रत्येक व्रतके साथ पहिले दिखाचुके हैं । अत एव यहांपर उनके वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है।
अव:
“अबती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायणः । परात्मबुद्धिसंपन्नः स्वयमेष परो भवेत् ॥"
जो अवती हैं उनको व्रत स्वीकार करके और व्रती होनेपर ज्ञान-श्रुतका अभ्यास करके, तथा ज्ञानपरायण होजानेपर परमात्मध्यानसे संपन्न होकर मुमुक्षुओंको स्वयं ही परमात्मरूप होजाना चाहिये । इस वचनके अनुसार जो मोक्षमार्गमें विहार करनेकी प्रतिज्ञा कर मुनिपदको स्वीकार कर उक्त महाव्रतोंका निर्वाह करनेमें तत्पर हैं अथवा उनका निर्वहण करचुके हैं उनको मैत्री आदि भावनाओं तथा स्वाध्याय और व्यवहार निश्चयरूप ध्यानके करनेका फल बताते हुए इन विषयोंमें भी उपयुक्त होनेकेलिये सावधान करते हैं:--
अध्याय
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मैत्र्याद्यभ्यसनात् प्रसद्य समयादावेद्य युक्त्याञ्चितात्.