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अनगार
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अध्याय
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मा भूत्कोपीह दुःखी भजतु जगदसद्धर्म शर्मेति मैलीं, ज्यायो हृत्तेषु रज्यन्नयनमधिगुणेष्वेष्विवेति प्रमोदम् | दुःखाद्रक्षेय प्रार्तान् कथमिति करुणां ब्राह्मि मामेहि शिक्षा, काऽद्रव्येष्वित्युपेक्षामपि परमपदाभ्युद्यता भावयन्तु ॥ १५१ ॥
अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । इस अनंत चतुष्टयरूप परमपदकी प्राप्ति के लिये उद्यत - अभिमुख हुए साधुओंको मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओंका निरन्तर चिन्तन करना चाहिये । प्राणिमात्रमें दुःखोंके उत्पन्न न होनेकी आकांक्षा रखनेको मैत्री, अपने से अधिक गुणवालोंको देखकर हर्षित होनेरूप मनोरागको प्रमोद, दुःखोंसे पीडित प्राणियोंके अभ्युद्धार करनेकी बुद्धिको कारुण्य, और निर्गुण या विरुद्ध व्यक्तियोंमें रागद्वेषके प्रकट न करनेको माध्यस्थ्य कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:
कायेन मनसा वाचा परा सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिर्मैत्री मैत्रीविदां मता ! तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥ दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामत्रोज्झता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥
मन वचन और कायके
द्वारा संसारके सभी प्राणियोंके विषय में ऐसी प्रवृत्ति करनेको, जिससे किसीको भी दुःख उत्पन्न न हो, मैत्री कहते हैं। तप या दूसरे गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदिक जिसमें अधिक पाये जाय ऐसे पुरुषके विषयमें होनेवाले उस मनोरागको प्रमोद कहते हैं जिससे कि उस व्यक्तिके विषय में प्रति भक्ति या विनय उत्पन्न हो; अथवा उनको अपने ऊपर प्रसन्न करने या उनके अनुकूल व्यवहार करने
ZEE SHREEZZAR
धर्म०
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