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अनगार
शिल्प आदि कलाओंके ज्ञानियोंके मदावेशपर दुःख प्रकट करते हैं-विद्यामदकी हेयता बताते हैं।
शिल्पं वै मदुपक्रमं जडधियोप्याशु प्रसादेन मे, विश्वं शासति लोकवेदसमयाचारष्वहं दृङ् नृणाम् । राज्ञां कोहमिवावधानकुतुकामोदैः सदस्यां मनः, कर्षत्येवमहो महोपि भवति प्रायोद्य पुंसां तमः ॥ ९१ ॥ .
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यद्यपि कुछ लोग ऐसे हैं जो कि ज्ञानविशिष्ट होनेपर भी उसका गर्व--मद नहीं करते । किंतु आह ! बडे कष्टके साथ कहना पडता है कि प्रायः करके आज कलिकालमें मनुष्योंका ज्ञान-शिल्प प्रभृति कलाओंका ज्ञानाख्य तेज भी अन्धकार बन रहा है । क्योंकि मत्त होनेके कारण वह स्वपरिणाम और परपारणामके विषय में अविवेकका कारण होगया है । यही बात दिखाते हैं। :
अध्याय
यह शिल्प- अमुक प्रकारका पत्रच्छेदादि करकौशल या नक्कासी वगैरहका काम जो देखनेमें आता है वह निश्चयसे मेरा ही तो उपक्रम है- इसका आविष्कर्ता मैं ही हूं। मेरे ही इस आविष्कारको ।. देखकर दूसरे लोग भी वैसा बनाने लगे हैं । मेरे प्रसादसे शीघ्र ही--मेरा अनुग्रह होते ही बडे बडे जडबुद्धि
भी इस चराचर जगत्के स्वरूपका दूसरोंको उपदेश देने लगते हैं-लोकस्थितिकी व्युत्पत्ति-भौगोलिक ज्ञान कराने में म ही गुरु हूं । लोक वेद और समय इन नाना लिंगियोंके मतोंके आचार भी विभिन्न हैं। इनमेंसे जिन जिनके अनुसार जो जो आचरण विहित हैं उन सबके बतानेमें मैं ही लोगोंकी दृष्टि हूं-मेरे ही द्वारा वे उन आचरणोंको देख व सुन सकते हैं-लोकादिके आचारोंको स्पष्ट रूपसे दिखानेमें भी मैं प्रवीण हूं । एवं मेरे
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