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अनगार
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का समझना चाहिये। क्योंकि आत्मसिद्धिके लिये शरीररक्षाका प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है। तथा “ शरीर सर्वथा त्याज्य ही है" इस शिक्षाको उक्त प्रवचनका तण्डुल समझना चाहिये । क्योंकि सारभूत पदार्थ वही है।
भावार्थ, जिस प्रकार धानकी मुसी निरुपयोगी ही समझी जाती है. और भीतरका तण्डुल-चावल ही सारभूत एवं उपयोगी पदार्थ रहता है इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । प्रवचनकी शिक्षामें शरीररक्षाके उपदेशको भुसीके समान और शरीरत्यागके उपदेशको तण्डुलके समान समझना चाहिये । अत एव सारभूत शिक्षाको ग्रहण कर बाह्य परिग्रहोंमें अत्यंत हेय शरीरके त्याग करनेका ही प्रयत्न करना चाहिये । ऐसा करनेपर ही मुमुक्षुओंका अभीष्ट सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि शरीरमें लगे हुए ममत्वका उच्छेदन करनेवाला ही पूर्णतया निग्रन्थ हो सकता है और उसको परम पुरुषार्थकी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। क्योंकि कहा भी है कि
देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाण विसयअहिलासो। तेसिंचाए खवओ परमढे हवइ णिग्गयो॥
शरीररूपी बाह्य परिग्रह और इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषारूप अन्तरङ्ग परिग्रह इन दोनोंका परित्याग करनेपर ही कर्मोंका क्षपण करनेकेलिये उद्यक्त साधु परमार्थसे निग्रंथ हो सकता है। अर्थात् बाह्य परिग्रहों में शरीर ही प्रधान है और उसका त्याग ही मुमुक्षुओंकेलिये आवश्यक है ।
शरीरको क्लेश देनमें जो जो गुण हैं और उसके लालन पालनमें जो जो दोष हैं उनको बताते हुए साधुओंको उपदेश देते हैं:
योगाय कायमनुपालयतोपि युक्त्या,
क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोपि शक्त्या । अ. ध. ५८
अध्याय