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यस्तत्रैव निलीय नाभिसरति द्वैतान्धकारं पुन- . स्तस्योद्दाममऽसीम धाम कतमच्छिन्दत्तमः श्राम्यति ॥ १४५ ॥
बनगार
समस्त इन्द्रियोंको तत्तत् विषयोंसे भले प्रकार हटाकर और अन्तःकरणको शरीरादिक पर पदार्थोंसे पराङ्मुख कर चिदानन्दस्वरूप-ज्ञानानन्दमय निज शुद्धात्मामें रोक कर-एकाग्रतया उपयुक्त करके तथा उसीमें अत्यंत लीन होकर जो निष्पन्नयोगवाला साधु द्वैतान्धकार-सविकल्प अवस्थारूपी अन्धकारकी तरफ आभिमुख नहीं होता, शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होजानेके कारण ' यह मैं हूं और ये पर हैं, अथवा मैं ध्याता हूं और ये ध्येय हैं' इत्यादि विकल्पों की तरफ जो प्रवृत्त नहीं होता उसका निःसीम-निरवधि या अनन्त तथा निरावरणतया प्रकाशमान तेज, ऐसा कौनसा अन्धकार है कि, जिसको नष्ट नहीं कर सकता?
भावार्थ--इन्द्रियों व मनको अपने अपने विषयोंसे हटाकर निर्विकल्पतया निज शुद्धात्मस्वरूपमें लीन होनेवाले निष्पन्नयोगीके जो स्वाभाविक आत्मिक तेज जागृत होता है वह चिरकालसे लगे हुए-अनादिकालीन अविद्या-अज्ञान या मोहके समस्त विलासोंको सर्वथा ध्वस्त करदेता है। ऐसा कोई भी मोहकर्मका अंश नहीं है कि जिसको निरसन करनेमें वह आत्मज्योति असमर्थ हो । अत एव पूर्वोक्त भावनाके निमितसे आत्मलीनता
या समरसीभावके द्वारा स्वाभाविक आत्मज्योतिके प्रकट होते ही मोहकर्मपर विजय प्राप्त होनेसे आत्माका - अपूर्व ही अतिशय प्रकाशित होने लगता है।
शुद्ध निजात्मस्वरूपकी प्राप्तिकी तरफ उन्मुख हुए आरब्धयोगीको आगे चलकर होनेवाली निष्पन्न योगकी रमणीयताकी प्राप्तिके फलकी भावनापर विचार प्रकट करते हैं:--
भावैर्वैभाविकैौ परिणतिमऽयतोऽनादिसंतानवृत्त्या, कर्मण्यैरेकलोलीभवत उपगतैः पुद्गलैस्तत्त्वतः खम् ।
अध्याय
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