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धनगार
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अध्याय
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यद्यपि शरीर और आत्मा नीरक्षीरकी तरह परस्पर में मिलकर अभिन्न सरीखे हो रहे हैं फिर भी उनमें मेद ही प्रमाणसिद्ध है । क्योंकि शरीर अचित्-जड है और आत्मा चित् चेतन है । जिस प्रकार जल और अन परस्पर में मिल जानेपर यद्यपि एक ही मालुम पडते हैं फिर भी द्रवता और दाहकता आदि गुण भेद या लक्षणभेदकी अपेक्षा दोनोंमें भेद निश्चित ही रहता है । उसी प्रकार जडता और चेतनता हेतुसे शरीर और आत्माकी भी विभिन्नता - प्रसिद्ध है । इस प्रकार जब अभिन्न सरीखे मालुम पडनेवाले शरीर और आत्मामें भेद प्रमाणतः सिद्ध हैं और वैसा ही मालुम भी होता है तब आत्मासे सर्वथा भिन्न कलत्र पुत्र गृह परिजन आदिमें तो अभेद भ्रम हो ही किस तरह सकता है । विवेकी पुरुषको आत्मासे सर्वथा भिन्न परिग्रहमें ये मुझस्वरूप ही हैं ऐसा प्रत्यय कभी नहीं हो सकता। इस तरहसे शरीरादिक परिग्रहोंसे निजात्माकी भिन्नताका दृढ निश्चय करके और उनसे सर्वथा आत्माको दूर रखकर कोई विरला ही पुण्यात्मा समस्त उछलते हुए या उद्भूत होते हुए विकल्पों - अन्तर्जल्पसे अच्छी तरह सिक्त विचारों संकल्पोंके नष्ट होजानेके कारण अत्यंत निर्मल हुई चेतोवृत्तिके द्वारा निजात्माका अभेदरूपसे अनुभव किया करता है ।
भावार्थ - जन्मान्तरमें किये गये योगाभ्यास के बलसे संचित पुण्यकर्मका जिसके उदय हो आया है ऐसा ही कोई निकटभव्य शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी परिग्रहोंसे भिन्नताका दृढ निश्चय करके एवं अ पनेको उनसे हटाकर उनका सर्वथा परित्याग कर निर्विकल्प ध्यानके द्वारा शुद्धात्मस्वरूपका अभेदरूपसे अनुभव किया करता है ।
उक्त प्रकारकी भावनाके बलसे समरसीभावके द्वारा जिनकी स्वाभाविक आत्माकी ज्योति उन्मीलित हो उठी है उन पुरुषोंके मोहकर्मके ऊपर विजय प्राप्त करनेसे जो अतिशय प्रकट होता है उसको बताते हैं। . स्वार्थेभ्यो विरमय्य सुष्ठु करणग्रामं परेभ्यः पराक्, कृत्त्वान्तःकरणं निरुध्य च चिदानन्दात्मनि स्वात्मनि ।
धर्म ०
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