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बनगार
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हे साधो ! तेने रत्नत्रयस्वरूप आत्माके साध्यभूत कार्यको जो स्वीकार किया है सो मालूम पडता है, मानों पहले-गृहस्थ अवस्थामें किये गये अनेक अपराधोंकी रचनाका मार्जन-निराकरण करनेकेलिये ही किया है। किंतु इस कार्यमें सहायक शरीर है इस बातका निश्चय करके इस समयमें, जब कि संसार शरीर और वैराग्य परिणाम विशुद्धिकी तरफ बढता चला जा रहा है, आत्मकार्यके सहकारी रूपसे निश्चित इस शरीरको उसी कार्यमें प्रयुक्त करनेकेलिये धर्मका पालन करनेमें वीर रस-सोत्साह वृत्तिसे युक्त होकर गुरु-दीक्षाचार्यकी आज्ञा नुसोर यदि श्री तीर्थकर भगवान्के उपदिष्ट स्वरूपसे युक्त भिक्षाको तेने स्वीकार कर लिया है-साधुओंके योग्य गोचरी चर्याके करनेकी प्रतिज्ञा करली है तो तू इस भिक्षारूपी छिद्र या द्वारसे आनेवाले अथवा अमुकने अमुक वस्तु बहुत अच्छी दी और अमुकने अमुक वस्तु अच्छी नहीं दी इस तरहसे संक्रांत होनेवाले रागद्वेषरूपी भूतोंका उपशमन भी क्यों नहीं करदेता ? अवश्य ही तुझको भिक्षाके विषयमें होनेवाले प्रमाद--रागद्वेषका परित्याग करना चाहिये।
भावार्थ--विभावादिकोंके द्वारा व्यक्त होनेवाले उत्साहरूप स्थायी भावको वीर रस कहते हैं। कहा मी है कि
उत्साहात्मा वीरः स त्रेधा धर्मयुद्धदानेषु ।
विषयेषु भववि तस्मिन्नक्षोभो नायकः ख्यातः ॥ धर्म युद्ध और दान इन विषयोंमें उत्साहरूप परिणामोंको वीर रस कहते हैं । अत एव इसके तीन भेद
अध्याय
- १-यह बात उत्प्रेक्षा अलंकारके द्वारा कही गई है जिसका कि लक्षण इस प्रकार बताया है कि
कल्पना काचिदौचित्याद्यत्रार्थस्य सतोन्यथा । द्योत्यते वादिभिः शब्दैरुत्प्रेक्षा सा स्मृता यथा ॥