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भिक्षोन्यथाक्षसुखर्जीवितरन्ध्रलाभात् ,
तृष्णासारद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ॥ १.४१ ॥ हे चारित्रमात्रगात्र ! भिक्षो!! योग-रत्नत्रयात्मकताको सिद्धिकेलिये पालन करते हुए भी-केवल उपेक्षाकरते हुए ही नहीं किंतु जिससे संयमके पालनमें किसी प्रकारका विरोध न आवे इस तरहसे रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्तिके साथ--बल और वीर्यको न छिपाकर तथा आगममें बताई हुई विधिके अनुसार ममत्वबु द्धिको दूर करनेकेलिये--शरीरसे लगे हुए ममकार भावका निराकरण करनेकेलिये उसका दमन ही करना चाहिये । उसको क्लेष देकर कृष ही करदेना चाहिये । अन्यथा यह निश्चित समझ कि जिस प्रकार साधारण भी नदी प्रवेश करनेकेलिये मार्गभूत जरासे भी छिद्रको पाकर दुरारोह और दुर्भेद्य भी पर्वतमें प्रवेश कर उसको जर्जरित करदिया करती है उसी प्रकार तुच्छ भी यह तृष्णा-विषयोंकी आकाङ्क्षारूप नदी ऐन्द्रिय सुख और जीवनस्वरूप दो छिद्रोंको पाकर सर्माचीन तपरूपी ऐसे पर्वतको, कि जिसपर कठिनतासे आरोहण किया जा सकता है एवं जिसका सहसा भेदन भी नहीं किया जा सकता, छिम मिन्न कर जर्जेरित कर डालेगी।
भावार्थ-- चक्षुरादिक इन्द्रियों के द्वारा अनुभूयमान अभिलषित अङ्गना प्रभृति पदार्थोंमे उत्पन्न होने वाले सुखकी और जीवन की आशा-तृष्णानदीको समीचीन तपरूपी पवतम प्रविष्ट होने के लिये दो छिद्रोंके समान हैं। क्योंकि वैषयिक सुखकी अभिलाषा और जीवनकी प्रत्याशाके द्वारा ही तृष्णारूप नदी दुरारोह और दुर्मेध भी समीचीन तपरूपी पर्वतको छिन्न भिन्न कर जर्जरित करदिया करती है। यही कारण है कि इन आशाओंके वशीभूत होकर जो शरीरके लालन पालन में लगे रहते हैं या तत्पर रहते हैं उनको तपकी सिद्धि नहीं हो सकती आर न उन्हें उसका संवर-निर्जरारूप फल ही प्राप्त हो सकता है । अत एव । भिक्षो ! यदि तुझको रत्नत्रयकी प्राप्ति व सिद्धिकेलिये तपरूपी पर्वतको स्थिर रखना है तो इस तरहसे युक्ति और शक्तिके अनुसार काय और कषायको कुप करनेमें ही प्रवृत्त होना चाहिये जिससे कि उसमें लगी हुई ममत्वबुद्धिका सर्वथा निराकरण हो जाय । किंतु यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि विना शरीरके स्थिर रहे तपका भी आराधन नहीं हो सकता । अत
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