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अनगार
भावार्थ-हाय, यह कितने दुःख और आश्चर्यकी बात है कि जो, पूर्वानुराग, संभोग और विप्रलम्भ तीनो ही प्रकारसे मनुष्यको क्रमसे संतप्त कृश और अन्तरङ्गमें पीडित किया करती है उसको मनुष्य उल्टा हायो और आर्या समझता है। इसके संयोगसे मनुष्य आयु बल इन्द्रिय आदिकसे रिक्त होजाता है और वियोग होनेपर अन्तरङ्गमें पीडित हो विलापादिक करने लगता है। यह बात शास्त्र और लोक दोनो ही में प्रसिद्ध है। यथा
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स्निग्धाः श्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्वलाका घना, वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः काम सन्तु दृढं कठोरहृदयो गमोस्मि सर्व सहे,
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीग भव ।। इधर आकाशमें स्निग्ध मेघ छाये हुए हैं जिनमें कि बगुलोंकी पङ्क्ति उडरही है और उनकी शामल कान्तिसे आकाश आच्छन्न हो रहा है, और इधर जिसमें छोटे छोटे जलकण मिले हुए हैं ऐसी वायु वह रही है और मयूरोंकी आनन्दध्वनि हो रही है। ये सब कलाए यथेष्ट-अच्छी तरहसे हों-मुझे इनकी कुछ भी परवाह नहीं है। क्योंकि मेरा हृदय अत्यंत कठोर है, मैं रामचन्द्र हूं, सब कुछ सह सकता हूं। किंतु हाय हाय इस समय वैदेी किस तरहसे होगी। हा देवि ! धीर रहना धैर्यसे काम लेना।
और भी कहा है किःहारो नागेपितः कण्ठे स्पर्शविच्छेदभीरुणा ।
इदानीमन्तरे जाताः पर्वताः सरितो द्रुमाः ।। परस्परके आलिङ्गनमें कहीं जरा भी अन्तर न पडजाय इस लिये मैंने गलेमें हार तक नहीं पहराया था पर अब हम दोनोंके बीचमें हाय, कितने पर्वत नदी और वृक्षतक पडे हुए हैं।
सब कुछ सह सकता इनकी कुछ भी परवाह
। देवि ! धीर रहना
ध्याय
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