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अनगार
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अध्याय
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धनमें गृद्धि रखनेवाले पुरुषकी महापापोंमें भी प्रवृत्ति होती है यह बताते हैं: -
जन्तून् हन्त्याह मृषा चरति चुरां ग्राम्यधर्ममाद्रियते । खादत्यखाद्यमपि धिग् धनं धनायन् पित्रत्यपेयमपि ॥ १२९ ॥
ग्राम सुवर्ण आदिक धनकी अभिकांक्षा -- तीव्र गृद्धि रखनेवाला मनुष्य क्या क्या अनर्थ नहीं करता ? वह उसको प्राप्त करनेकी अभिलाषाले महानसे महान् पाप कर्ममें भी प्रवृत्ति करने लगता है । प्राणिबध असत्य भाषण और चौरकर्मका आचरण करता, ग्राम्यधर्म - मैथुनका भी सेवन करता, सर्वथा अभक्ष्य काकमांसा दिकका भी भक्षण करने लगता और उच्चवर्ण तथा प्रशस्त कुलमें जिसका पीना सर्वथा निषिद्ध है ऐसे मद्यादिकका भी पा करने लगता है। जिस धनकी लिप्सासे मनुष्यकी इन हिंसा झूठ चोरी आदि सभी दुष्कर्मोमें प्रवृत्ति होने लगती है उस धनको अथवा गृद्धिवश इन महापापों में प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्यको धिकार है। मुमुक्षुओंको यह धनपरिग्रह महापापका ही कारण समझकर दरहीसे छोडदेना चाहिये।
भूमिमें लुब्ध हुए पुरुष के जो अपाय और अवद्य - निन्द्यकर्म होते हैं उनको दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं
तत्तादृग्साम्राज्यश्रियं भजन्नपि महीलवं लिप्सुः ।
भरतोऽवरजेन जितो दुरभिनिविष्टः सतामिष्टः ॥ १३० ॥
उस प्रसिद्ध और लोकोत्तर साम्राज्यलक्ष्मी-समस्त चक्रवर्तीकी विभूतिको भोगते हुए भी जब प्रथम चक्रवर्ती भरतने पृथ्वीके एक छोटेसे हिस्से केवल सुरम्य नामके देशको अपने छोटे भाई बाहुबलि कुमारसे लेकर अपने हस्तगत करना चाहा उस समय उस कुमारसे वह परिभवको ही प्राप्त हुआ और सत्पुरुषोंने भी उसको दुरभिनिवेशयुक्त ही समझा ।
धर्म ०
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