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अनगार
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षाः किं पुनर्मनुष्याः" । अर्थात उपभोगरहित वृक्ष भी जब धनमें अभिलाषा रखते हैं तब मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। ऐसा देखते भी हैं कि यदि किसी वृक्षके मूलके पास धन गाढदिया जाय तो उसको उस वृक्षकी जटाएं बेष्टित करलिया करती हैं अथवा उधरको ही जडें अधिक बढा करती हैं। इसी प्रकार कामिनियोंके लिवना. की अभिलाषा तो अशोकादिक वृक्षोमें अच्छी तरह प्रसिद्ध ही है, जैसा कि कहा भी है कि:--
सन्नूपुरालक्तकपादताडितो द्रुमोपि यासां विकसत्यचेतनः ।
तदनसंस्पर्शरसद्रवीकृतो विलीयते यन्न नरस्तददभुतम् ॥ जिन स्त्रियोंके सुंदर नू पुर और महावरसे युक्त पैरसे ताडित होते ही अचेतन वृक्ष भी विकसित हो उठता है--खिलजाता है उन्ही स्त्रियोंके शरीरस्पर्शके रसके पिघलाये जानेपर भी मनुष्य विलीन न हो तो यह आश्चर्यकी बात है।
और भी कहा है कि:--- यासां सीमन्तिनीनां कुरबकतिलकाशोकमाकन्दवृक्षाः, प्राप्योच्चैर्विक्रियन्ते ललितभुजलतालिङ्गानादीन्विलासान् । तासां पूर्णेन्दुगौरं मुखकमलमलं वीक्ष्य लीलालसाढ्य
को योगी यस्तदानीं कलयति कुशलो मानसं निर्विकारम् ।। जिन सीमन्तिनियोंके मनोज्ञ भुजलताओंके आलिंगन प्रभृति विलासोंको पाकर कुरबक तिलक अशोक और माकन्दवृक्ष भी अच्छी तरहसे विकारको प्राप्त होजाते हैं उनके लीलारससे भरे हुए और पूर्ण चन्द्रमाके समान गौरमुख कमलको अच्छी तरह देखकर ऐसा कौनसा कुशल योगी है जो कि अपने मनको निर्विकार प्रकाशित कर सके या रखसके।
अध्याय
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अ. ध. ५७