________________
मालिक सिमावर्थ धना वर्जन और रक्षण
बनगार
भावार्थ धनका अर्जन और रक्षण करने में मनुष्योंको तीव्र क्लेश ही उठाना पडता है अत एव उसकी प्राप्तिके लिये उद्यम करना व्यर्थ है।
बहिर्दृष्टि मनुष्योंको धनके अर्जन और भोजनसे ऐसा उन्माद होता है जिससे कि वे निःशंक होकर पापकर्म करनेमें प्रवृत्ति होते और मैथुनका भी सेवन करने लगते हैं। इन्ही धन और भोजन सम्बन्धी दोषोंको यहां प्रकट करते हैं:
४४८
धनादन्न तस्मादबक इति देहात्ममतयों, मर्नु मन्या लधु धनमधमशङ्का विदधते । वृषस्यन्ति स्त्रीरप्यदयमशनोदिन्नमदना, घनस्त्रीरागो वा ज्वलयति कुजानप्यमनसः॥ १३ ॥
" सम्पूर्ण जीवोंके प्राणोंकी स्थिति अनसे ही रह सकती है । भोजनके बिना कोई भी प्राणोंको स्थिर नहीं रख सकता । किंतु अन्न-भोजन भी प्राप्त होना धनपर निर्भर है । अत एव समस्त लोक और उसके व्यवहारका मूल धन ही है। " बस, ऐसा समझकर ही बहिदृष्टि लोक - शरीरको ही आत्मा समझनेवाले विपरीतबुद्धि जन अपनेको मनु-लोकव्यवहारके उपदेष्टा कुलकर मानने लगते और धनका उपार्जन करनेकेलिये निःशंक -परलोकादिकके भय से रहित होकर पापकर्मों में भी प्रवृत्ति करने लगते हैं। और उन्होंने जिसको धनका फल समझ रक्खा है ऐसे भोजनके करनेपर जब उनके तीव्ररूपसे कामदेवका उद्रेक होता है तब निर्दय.होकर स्त्रियोमें पशुकर्म--रति करनेकोलिये प्रवृत्त होते हैं । अथवा यह बात ठीक भी है। क्योकि देखते हैं कि अमनस्क वृक्षोंको भी यह धन और स्त्रीका राग जलाया करता है --धनका स्वीकार करने के लिये और स्त्रियों के साथ प्रविचार करनेकेलिये उद्युक्त किया करता है। जैसा कि नीतिमें भी कहा है कि "अर्थेषपभोगरहितास्तरवोऽपि साभिला
बध्याय
४४८