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व्यक्ति भी जो कि तत्त्वस्वरूपको भले प्रकार जानते हैं इसके वशमें होकर अन्यथा व्यवहार करने लगते हैं । जो निजात्मस्वरूप नहीं है ऐसे शरीरादिकमें "मैं" इस तरहसे और अनात्मीय स्त्री पुत्र गृहादिक परिग्रहोंमें “ये मेरे हैं" इस तरहसे समझकर व्यवहार करने लगते हैं।
यद्यपि अपकार करनेवाला यह चारित्रमोहनीय ही है फिर भी इसका उच्छेद करनेकेलिये विद्वानोंको प्रयत्न काललब्धिके विषयमें ही करना चाहिये । ऐसी शिक्षा देते हैं:
दुःखानुबन्धैकपगनरातीन्, समूलमुन्मूल्य परं प्रतप्स्यन् । को वा विना कालमरेः प्रहन्तुं, धीरो व्यवस्यत्यपराध्यतोपि ॥ १३७ ॥
केवल दुःखोंके देनेमें ही तत्पर रहनेवाले या प्रधान कारणभृत मिथ्यात्वादिक शत्रुओंका समूल उन्मूलन कर-संवरके साथ साथ निर्जरा-एकदेश क्षय करके उत्कृष्टतया तप करनेकी इच्छा रखनेवाला ऐसा कौन धीर होगा जो कि अपना अपराध-अपकार करनेवाले भी कर्मशत्रु--चारित्रमोहनीयका नाश करने के लिये कालकी अपेक्षा किये बिना ही उद्युक्त उत्साहित हो ।
मावार्थ-यह बात लोकमें भी देखते हैं कि जो धीर-स्थिरप्रकृतिका नायक होता है वह इस प्रचलित नीतिको हृदयमें रखकर कि “जबतक योग्य समय-अवसर प्राप्त न हो तबतक अपने अपकर्ताके साथ भी सद्व्यवहार ही करना चाहिये," नित्य ही संतप्त करनेवाले चौर वरटादिकोंका निबंध-ध्वंस करके अपने प्रकृष्ट तेजको समस्त जगत्के ऊपर उपस्थापित करने की इच्छासे अपना अपराध करने में प्रवृत्त भी उन प्रतिनायक शत्रुओंका घात करनेकेलिये योग्य समयकी प्रतीक्षा किया करता है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । क्योंकि प्रत्येक कार्य अवसर