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पनगार
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पर ही उचित रूपसे सिद्ध हो सकता है । अत एव जो धीर मुमुक्षु भव्य मिथ्यात्वादिक शत्रुओंका नाश कर-संवरसहभावी निर्जरा--इन कर्मोंका एकदेश क्षय करके तपका आराधन करना चाहते हैं वे भी सबसे पहले उस तपके विरोधी चारित्रमोहनीयको निर्मूल करनेकेलिये योग्य समयकी ही प्रतीक्षा किया करते हैं।
लक्ष्मीका उपार्जन कर योग्य सत्पात्रोंमें उसका विनियोग करनेवाला जो सद्गृहस्थ उसका सर्वथा परित्याग कर मुख्यतया मोक्षमार्गमें चलने का प्रयत्न करता है - उत्कृष्ट निर्ग्रन्थ लिङ्गको धारण करता है उसकी प्रशंसा करते हैं:--
पुण्याब्धेर्मथनात्कथं कथमपि प्राप्य श्रियं निर्विशन, वैकुण्ठो यदि दानवासनविधौ शण्ठोस्मि तत्सद्विधौ । इत्यर्थैरुपगृह्णता शिवपथे पान्थान्यथास्वं स्फुर,
त्तादृग्वीर्यबलेन येन स परं गम्यत नम्येत सः ॥ १३८ ॥ पुण्यरूपी समुद्रका मन्थन करके किसी न किसी प्रकारसे-बडे कष्टोंसे लक्ष्मीका उपार्जन कर उसका उपभोग करनेवाला जो गृहस्थ यह सोच करके कि “ यदि दानके द्वारा सचमुचमें मैं अपनी आत्माका संस्कारविधान करनेमें मन्द रहा तो सदाचार-सम्यकक्चारित्रके पालन करनेके लिये प्रयत्न करने में भी भ्रष्ट ही रहूंगा। यदि अपनी इस लक्ष्मीका सत्पात्रोंमें व्यय नहीं कर सकता तो मुनिधर्मका भी धारण मैं किस तरह कर सकूँगा। अवश्य ही मैं उससे वञ्चित रहूंगा"। मोक्षमार्गमें नित्य ही प्रस्थान करनेवाले साधुओंको अपने उस धनके द्वारा यथायोग्य उपकार करता है वह सद्गृहस्थ अपने उस स्फुरायमान और मोक्षमार्गके लिये सर्वथा योग्य वीर्य और बलके द्वारा जब उस उत्कृष्ट मोक्षमार्गमें चलने लगता है उस समयमें उक्त सदाचारसे पूर्ण इस भव्यको मुमुक्षुजन भी नमस्कार किया करते हैं।
भावार्थ--जिस प्रकार क्षीरसमुद्रका मन्थन करके प्राप्त की हुई लक्ष्मीका स्वयं भोग करनेवाले
बध्याय
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