________________
बनमार
REPENDENIERSPERTONENESH
४४७
यत्पृक्तं कथमप्युपाय॑ विधुराद्रक्षन्नरस्त्याजित:, खे पक्षीव पलं तदर्थिभिरलं दुःखायते मृत्युवत् । तल्लाभे गुणपुण्डरीकमिहिकावस्कन्दलोभोद्भव,
प्रागल्भीपरमाणुतोलितजगत्युत्तिष्ठते कः सुधीः ॥ १३२ ॥ किसी तरहसे एक मांसके टुकडेको पाकर उसकी विघ्न बाधाओंसे रक्षा करते हुए पक्षीको यदि दूसरे फलार्थी पक्षी आकाशमें उमसे वियुक्त करदें-उससे वह मांसका टुकडा छुडादें तो उसको जिस प्रकार मृत्युके समान अत्यंत दुःख होता है इसी प्रकार जो मनुष्य धनमें तत्रि गृद्धि रखनेवाला है और अत्यंत कष्टोंसे किसी प्रकार धनका संचय करके उसकी अपायोंसे तथा कठिनताके साथ रक्षा कर रहा है । यह कष्टसे संचित किया हुआ धन किसी प्रकार नष्ट न हो जाय, चोरीमें न चला जाय, अथवा किसी प्रकार खर्च न होजाय इत्यादि अनेक अपायोंके विषयमें निरंतर सावधानी रखता है उस मनुष्यको यदि उस धनके अर्थी याचक या बन्धुबान्धव कदाचित् उससे वियुक्त करदें - उससे लेलें या कहीं त्याग-दानादिक करादें तो उस लुब्धको ऐसा तीव्र दुःख होता है जैसा कि मृत्युके समय-प्राणोंका वियोग होनेपर हुआ करता है। यह धनका संचय जिस लोभकर्मचतुर्थे कषायके उदयसे मनुष्य किया करता है वह पुण्डरीक-~-श्वेत कमलके समान हृदयको आल्हादित करनेवाले सम्यग्दर्शन प्रभृति प्रशस्त गुणों कोलिये तुषार वपाके समान है। इस लोभोदयकी प्रकृष्टता-निरंकुश प्रवृत्तिके कारण ही जीव नमस्त जगत की स्थावर जंगम संपत्ति के समूहरूप संपूर्ण लोककी भी परमाणुसे तुलना करने लगता है। तीन लोककी संपत्तिको भी गद्धिवश अणुतुल्य ही समझता और इसीलिये उसके अर्जन रक्षणमें ही निरंतर लगा रहकर क्लेशोंको ही उठाया करता है । अत एव कहना पडता है कि ऐसा कौन मुमुक्षु अथवा विचारकुशल पुरुष होगा जो कि ऐसे लोभके उदयमे प्राव होनेवाले दुःखकर धनका संचय करनेकालये उद्यम करे ।
१-आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमं । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ।
बध्याय